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अनेक रूप आदि विविध क्रियाएं की जा सकती हैं, वह वैक्रिय शरीर है। जिस शरीर में हाड़, मांस, रक्त न हो तथा जो मरने के बाद कपूर की तरह उड़ जाए, उसको वैक्रिय शरीर कहते हैं।
जीव-अजीव
आहारक शरीर - चतुर्दश पूर्वघर मुनि आवश्यक कार्य उत्पन्न होने पर जो वेशिष्ट पुद्गलों का शरीर बनाते हैं, वह आहारक शरीर है । '
तैजस शरीर जो शरीर आहार आदि को पचाने में समर्थ है और जो तेजोमय है, वह तैजस शरीर है। उसे विद्युत् शरीर भी कहा जाता है। कार्मण शरीर-ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के पुद्गल - समूह से जो शरीर बनता है, वह कार्मण शरीर है।
इनमें तैजस और कार्मण- ये दो शरीर प्रत्येक संसारी आत्मा के हर समय विद्यमान रहते हैं । औदारिक शरीर जन्म सिद्ध होता है। वैक्रिय शरीर जन्म- सिद्ध और लब्धि-सिद्ध दोनों प्रकार का होता है। आहारक शरीर योग-शक्ति से प्राप्त होता है। प्रवाह रूप में आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अनादि है और व्यक्तिरूप से सादि ।
औदारिक, वैक्रय और आहारक शरीर के अंगोपांग होते हैं, शेष शरीरों के नहीं होते ।
औदारिक आदि चारों शरीरों का निमित्त है कार्मण शरीर । कार्मण शरीर का निमित्त है आश्रव ।
जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में कैसे प्रवेश कर सकता है ? यह समस्या कई आत्मवादियों को भी जटिल जान पड़ती है, पर कार्मण शरीर का ज्ञान होने पर यह समस्या सरलता से सुलझ जाती है। जब तक मुक्ति नहीं होती तब तक आत्मा अशरीरी भी नहीं होती । आत्मा एक स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थूल शरीर में तभी प्रवेश कर सकती है जबकि कार्मण शरीर आत्मा के साथ लगा रहे । तैजस और कार्मण शरीर अत्यन्त सूक्ष्म शरीर हैं। अतः सारे लोक की कोई भी वस्तु उनके प्रवेश को रोक नहीं सकती । सूक्ष्म वस्तु बिना रुकावट के सर्वत्र प्रवेश कर सकती है, जैसे- अति कठोर लोह - पिण्ड में अग्नि ।
तैजस और कार्मण - ये दो शरीर सभी संसारी जीवों के प्रवाह रूप से सदा होते हैं । औदारिक आदि बदलते हैं । एक साथ एक संसारी जीव के कम से कम दो और अधिक से अधिक चार तक शरीर हो सकते हैं, पांच कभी नहीं ।
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