________________
सातवां बोल
शरीर पांच १. औदारिका
४. तेजस २. वैक्रिय
१. कार्मण ३. आहारक
जिसके द्वारा चलना, फिरना खाना-पीना आदि क्रियाएं होती हैं, प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होना जिसका स्वभाव है, जो शरीर-नामकर्म के उदय से बनता है और जो संसारी आत्माओं का निवास स्थान होता है, उसे शरीर कहते हैं।
आत्मा रूप-रहित है। उसको हम देख नहीं सकते। पर संसारी आत्माएं किसी दृष्टिकोण से रूप-युक्त भी मानी जाती हैं। इसलिए वे हमारे प्रत्यक्ष भी हैं। संसार की समस्त आत्माओं के शरीर होता है। शरीर को हम देखते हैं, तब आत्मा का हमें अपने आप बोध हो जाता है।
आत्मा स्वयं शरीर का निर्माण कर उसको अपनी समस्त जीवन-क्रिया का साधन बनाती है, अतः उसके चले जाने के बाद उन क्रियाओं का नाश हो जाता है। यह निश्चय है कि शरीर आत्माओं से सर्वथा पृथक् है। आत्माएं ज्ञानमय हैं और शरीर ज्ञान-शून्य है--पोद्गलिक है। आत्मा को पौद्गलिक सुख-दुःख का जितना भी अनुभव होता है वह सब शरीर के द्वारा ही होता है। इसीलिए शरीर की परिभाषा भी इस प्रकार की जाती है-'पौद्गलिक सुख-दुःखानुभवसाधनं शरीरम'।
औदारिक शरीर-जो शरीर स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न होता है, वह औदारिक शरीर है। वैक्रिय आदि चारों सूक्ष्म, सूक्ष्मतर पुद्गलों के बने हुए होते हैं।
औदारिक शरीर आत्मा से अलग हो जाने के बाद भी टिक सकता है, परन्तु चैक्रिय आदि शरीर आत्मा से अलग होते ही बिखर जाते हैं। औदारिक शरीर का छेदन-भेदन किया जा सकता है, परंतु अन्य शरीरों में छेदन-भेदन संभव नहीं है। मोक्ष की प्राप्ति भी केवल औदारिक शरीर से हो सकती है। औदारिक शरीर में हाड, मांस, रक्त आदि होते हैं। इसका स्वभाव है गलना, सड़ना एवं विनाश होना। वैक्रिय शरीर-जिस शरीर से छोटापन, बड़ापन, सूक्ष्मता, स्थूलता, एकरूप,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org