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________________ पावि बोल समर्थ होते हैं, उन पुद्गलों या उनके शरीर बनाने की शक्ति को कहते हैं-शरीर-पर्याप्ति। ३. दीवारें या कमरा बनाने के समय उनमें प्रवेश और निकास के हक रखे जाते हैं, दरवाजे बनाये जाते हैं। घर के समान आकारवाली शरीर-पर्याप्ति में दरवाजों के समान इन्द्रिय-पर्याप्ति है। परोक्ष ज्ञान वाली आत्मा बाह्य इंद्रियों के द्वारा ही वस्तुओं का ज्ञान कर सकती है। ४-५. श्वासोच्छ्वास'-पर्याप्ति और भाषा-पर्याप्ति का स्वरूप उपरोक्त उदाहरण के द्वारा ही समझना चाहिए; क्योंकि इन दोनों में भी इन्द्रिय की तरह प्रवेश और निर्गम होता है। ६. मकान तैयार होने के बाद, यह कमरा शीतकाल में गरम रहता है, यह ग्रीष्मकाल में ठंडा रहता है, यह शयन-घर है, यह भोजन-घर है इत्यादि विचारों के समान है मनःपर्याप्ति । हेय (छोड़ने योग्य) वस्तुओं का परित्याग एवं उपादेय (ग्रहण करने योग्य) वस्तुओं के स्वीकार का ज्ञान मनःपर्याप्ति के आलम्बन से ही किया जाता है। उपर्युक्त विवेचन के अनुसार पर्याप्तियों की निम्न प्रकार से परिभाषा की जा सकती है: (१) जिस पुद्गल-समूह से शरीर आदि पांच पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल ग्रहण करने वाली क्रिया की पर्याप्ति या पूर्णता होती है, उसे आहार-पर्याप्ति कहते हैं। (२) शरीर के योग्य पुद्ग्लों की, शरीर के अंगोपांगों की रचना करने वाली क्रिया की पर्याप्ति होती है जिस पुद्गल-समूह से, उसे कहते हैं-शरीर-पर्याप्ति। (३) त्वचा आदि इन्द्रियों की रचना करने वाली क्रिया की पर्याप्ति होती है जिस पुद्गल-समूह से, उसे कहते हैं-इन्द्रिय-पर्याप्ति। ४. श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों का ग्रहण और उत्सर्ग (त्याग) करने १. बाहर की वायु को शरीर के अन्दर ले जाना और अन्दर की वायु को शरीर से बाहर निकालना श्वासोच्छ्वास कहलाता है। यह काम केवल फेफड़ों के द्वारा ही नहीं होता, परंतु चर्म-छिद्रों के द्वारा भी होता है। हमारे समूचे शरीर से श्वासोच्छ्वास की क्रिया होती रहती है। यदि फेफड़े को ही श्वासोच्छ्वास का साधन मान लें तब तो वनस्पति-काय में श्वासोच्छ्वास की क्रिया नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वनस्पतिकाय में फेफड़ा नहीं होता। परन्तु जैन-सिद्धान्त के अनुसार वनस्पति-काय में भी श्वासोच्छ्वास होता है, अतः यह मानना पड़ेगा कि श्वासोच्छ्वास प्राणी के समूचे शरीर से होता रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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