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पांचवां बोल
पयाप्ति छह
१. आहार-पर्याप्ति ४. श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति २. शरीर-पर्याप्ति १. भाषा-पर्याप्ति ३. इन्द्रिय-पर्याप्ति ६. मनः-पर्याप्ति पर्याप्ति का अर्थ है-जीवनोपयोगी पौद्गलिक शक्ति के निर्माण की पूर्णता ।
जब जीव एक स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है तब भावी जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए अपने नवीन जन्म-क्षेत्र में एक साथ आवश्यक पौद्गलिक सामग्री का निर्माण करता है। इसे या इससे उत्पन्न होने वाली शक्ति को-पौद्गलिक शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं।
छहों ही पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक काल में होता है, परन्तु उनकी पूर्णता क्रमशः होती है, इसलिए क्रम का नियम रखा गया है। आहार-पर्याप्ति को पूर्ण होने में एक समय' और शरीर-पर्याप्ति आदि पांचों में से प्रत्येक को अन्तर्मुहूर्च लगता है।
१. मकान बनाने वाला सबसे पहले उसकी सामग्री-काठ, ईट, मिट्टी, पत्थर, चूना आदि इकट्ठा करता है। इसी प्रकार जीव जन्म-ग्रहण करते समय आहार के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करता है। उन पुद्गलों को या उनकी शक्ति को कहते हैं-आहार पर्याप्ति।
२. आहार-पर्याप्ति में सब पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल ग्रहण किये हुए होते हैं। अमुक काठ स्तम्भ बनाने के योग्य है, अमुक कपाट बनाने के योग्य, अमुक पत्थर पट्टियों या दीवारों के योग्य है। इस विभाग के समान है-शरीर-पर्याप्ति। आहार-पर्याप्ति में जो पुद्गल शरीर की रचना करने में १. जैन सिद्धांत में सबसे सूक्ष्म अर्थात् अविभाज्य (जिसके भाग न हो सके) काल का नाम 'समय'
२.दो समय से लेकर दो घड़ी (४८ मिनट) में एक समय कम-इतने काल को अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। अन्तर्मुहूर्त के तीन भेद हैं:
(१) जघन्य अन्तर्मुहूर्त-दो समय का काल । (२) उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त- दो घड़ी में एक समय कम का काल।
(३) मध्यम अन्तर्मुहूर्त्त-जघन्य और उत्कृष्ट के बीच का काल। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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