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चौथा बोल
इन्द्रिय पांच
2. स्पर्शन इन्द्रिय ४. चक्षुः इन्द्रिय २. रसन इन्द्रिय १. श्रोत्र इन्द्रिय ३. प्राण इन्द्रिय
प्रत्येक जीव तीन लोक के ऐश्वर्य से सम्पन्न होता है, इसलिए उसे इन्द्र कहते हैं। वह (इन्द्र या जीव) जिस चिन से पहचाना जाये, उसे इन्द्रिय कहते हैं। यह 'इन्द्रिय' शब्द की व्युत्पत्ति है।
जिससे अपने एक विषय का ज्ञान होता है, उसे इन्द्रिय कहते हैं। यह इन्द्रिय की परिभाषा है। जिस इन्द्रिय से स्पर्श का ज्ञान होता है, वह है स्पर्शन इन्द्रिय-त्वचा। जिस इन्द्रिय से रस का ज्ञान होता है, वह है रसन-इन्द्रियजिह्वा । जिस इन्द्रिय से गंध का ज्ञान होता है वह है घ्राण-इन्द्रिय-नाक । जिस इन्द्रिय से रूप का ज्ञान होता है वह है चक्षुः इन्द्रिय-आंख । जिस इन्द्रिय से ध्वनि का ज्ञान होता है, वह है श्रोत्र-इन्द्रिय-कान ।
इन्द्रिय के दो भेद हैं :
(१) द्रव्येन्द्रिय-नाक, कान आदि इन्द्रियों की बाहरी और भीतरी पौद्गलिक रचना (आकार विशेष) को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं।
(२) भावेन्द्रिय-आत्मा के परिणाम विशेष (जानने की योग्यता और प्रवृत्ति) को मावेन्द्रिय कहते हैं।
द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं :
(१) निवृत्ति-द्रव्येन्द्रिय--इन्द्रिय की आकार-रचना को निर्वृत्ति-द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। आकार दो प्रकार के होते हैं-बास्य और आभ्यन्तर । बाह्य आकार भिन्न-भिन्न जीवों के भिन्न-भिन्न होते हैं, सबके एक-से नहीं होते। आभ्यन्तर आकार सब जीवों के एक से होते हैं। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का आभ्यन्तर आकार कदम्ब के फूल जैसा, चक्षुरिन्द्रिय का मसूर की दाल जैसा, घ्राणेन्द्रिय का अतिमुक्त पुष्प की चन्द्रिका जैसा, रसन इन्द्रिय का खुरपे जैसा होता है। केवल स्पर्शन इन्द्रिय का आभ्यन्तर आकार अनेक प्रकार का होता है। वह अपने शरीर के आकार जैसा होता है।
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