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वनस्पति में पृथक्-पृथक् अनेक जीव होते हैं। जब तक उनको विरोधी शस्त्र न लगे तब तक वनस्पति सचित्त होती है। विरोधी शस्त्र के योग से वह अचित हो जाती है।
जीव-अजीर
वनस्पतिकाय में अनन्त जीव होते हैं। शेष पांच कार्यों में असंख्य जीव होते हैं। पृथ्वी, पानी आदि जो हमें दीखते हैं, वे पृथ्वीकायिक, अपकायिक आदि जीवों के शरीर हैं।
एक जाति के जीव अपनी तथा दूसरी जाति के जीवों के लिए शस्त्र होते हैं। जिस तरह शस्त्र द्वारा मनुष्यों का नाश होता है, उसी तरह परस्पर-विरोधी स्वभाव के जीव एक-दूसरे का शस्त्र के समान नाश करते हैं। जैसे विरोधी स्वभाव वाले दो मिट्टियों के जीव एक-दूसरे के घातक हैं; अग्निकायिक जीव जलकायिक जीवों के लिए शस्त्र हैं, उसी तरह जलकायिक जीव अग्निकायिक जीवों के लिए शस्त्र हैं। सचित मिट्टी से जो सचित मिट्टी के जीवों का नाश होता है, वह स्वकाय-शस्त्र कहलाता है तथा अग्नि से मिट्टी के जीवों का नाश होता है, वह परकाय-शस्त्र कहलाता है । वायुकाय का शस्त्र वायुकाय ही है। सचित वायु से जो वायु का नाश होता है, वह स्वकाय - शस्त्र और अचित्त वायु से जो वायु का नाश होता है, वह परकाय-शस्त्र है।
६. सकाय - द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के समस्त हिलने चलने, घूमने-फिरने वाले जीव सकायिक जीव कहलाते हैं। इन जीवों के उत्पन्न होने मुख्यतया आठ प्रकार हैं :
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(१) अण्डज - वे त्रस जीव, जो अण्डों से पैदा होते हैं। जैसे-पक्षी, सर्प आदि ।
(२) पोतज - वे त्रस जीव, जो अपने जन्म के समय खुले अंगों सहित होते हैं। जैसे- हाथी आदि ।
(३) जरायुज- वे त्रस जीव, जो अपने जन्म के समय मांस की झिल्ली से लिपटे रहते हैं । जैसे - मनुष्य, भैंस, गाय आदि ।
(४) रसज-- वे त्रस जीव, जो दही आदि रसों में उत्पन्न होते हैं, जैसे--कृमि आदि ।
(५) स्वेदज-वे त्रस जीव, जो पसीने से उत्पन्न होते हैं। जैसे-जूं, लीख आदि ।
(६) सम्मूर्च्छिम-वे त्रस जीव, जो नर-मादा के संयोग बिना ही उत्पन्न होते हैं। जैसे-मक्खी, चींटी आदि ।
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