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________________ बीसवां बोल ११ ३. आकाशास्तिकाय आकाश का अर्थ है-जिसमें जीव और पुद्गल को आश्रय प्राप्त है, वह द्रव्य । अस्तिकाय का अर्थ है-प्रदेश-समूह। द्रव्य से आकाशास्तिकाय अनन्त प्रदेशों का एक अविभाज्य पिण्ड है। एक कहने का उद्देश्य यह है कि वह पृथक्-पृथक् व्यक्ति रूप नहीं परन्तु संलग्न एकाकार है। क्षेत्र से वह लोक-अलोक-दोनों में व्याप्त है। काल से वह अनादि और अनन्त है। भाव से वह अमूर्त है। गुण से वह भाजन गुण वाला अर्थात् अवकाश की क्षमता वाला द्रव्य है। प्रश्न-आधार कितने पदार्थ हैं आधेय कितने ? उत्तर--एक आकाश द्रव्य आधार है, शेष सब द्रव्य आधेय हैं। आकाश भी अमूर्च होने के कारण हमें दिखाई नहीं देता फिर भी अनुमान और तर्क के बल पर उसका अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। आधार के अभाव में कोई भी पदार्थ टिक नहीं सकता। घड़े में पानी इसलिए ठहरता है कि उसमें आश्रय देने का गुण विद्यमान है। कोई न कोई ऐसा व्यापक पदार्थ अवश्य होना चाहिए जो समस्त पदार्थों को आश्रय दे सके, वह आकाश ही है। यह सारा संसार उसी के गुण पर प्रतिष्ठित है। स, स्थावर आदि प्राणियों का आधार पृथ्वी है। पृथ्वी का आधार जल है। जल का आधार वायु और वायु का आधार आकाश है। वायु, जल, पृथ्वी आदि आधार और आधेय--दोनों हैं। आकाश केवल आधार ही है, आधेय नहीं। पृथ्वी त्रस-स्थावर आदि प्राणियों का आधार है तथा स्वयं उदधि-प्रतिष्ठित है--जल पर टिकी हुई है, अतः आधेय है। उदधि पृथ्वी का आधार है परन्तु स्वयं वायु प्रतिष्ठित है, अतः आधेय है। वायु उदधि का आधार है परन्तु स्वयं, आकाश प्रतिष्ठित है, अतः आधेय है। आकाश वायु का आधार है और वह आत्म-प्रतिष्ठित है, अतः आधेय नहीं। प्रश्न-आकाश अमूर्त है तो फिर उसका आसमानी रंग क्यों दिखाई देता है ? उत्तर--यह रंग आकाश का नहीं है। वह जैसा यहां है वैसा ही सर्वत्र है। जो आसमानी रंग दृष्टिगोचर हो रहा है, वह दूरस्थित रजकणों का है। रजकण हमारे आस-पास भी घूमते रहते हैं, फिर भी सामीप्य के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते। दूरी व सघनता होने पर वही रजकण आसमानी वर्ण में दीखने लग जाते हैं। उँचे से बादल एक सघन-पिंड के रूप में दिखाई देते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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