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________________ ११८ स्थिर रहने में। जो स्वभावतः स्थिर हैं, उनको सहायता की कोई आवश्यकता नहीं । सहायता की जरूरत उन्हीं पदार्थों को होती है जो सदा स्थिर नहीं रहते। स्थिर रहने में उपादान अर्थात् आत्मीय कारण स्वयं पदार्थ ही है, अधर्मास्तिकाय केवल सहाय मात्र है । जीव-अजीव अधर्मास्तिकाय के बिना जीव व पुद्गल स्थिर नहीं रह सकते, अतः अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व अनिवार्य है। स्थिरता का अस्तित्व सम्पूर्ण लोक में है, अतः उसका सकल लोक-व्यापी होना भी जरूरी है - यह सब धर्मास्तिकाय की तरह समझना चाहिए। अलोक में अधर्मास्तिकाय का अभाव है। अतः वहां पदार्थों की स्थिरता का प्रश्न भी नहीं है, क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में जीव और पुद्गल वहां जा ही नहीं सकते । प्रश्न -- धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व सिद्ध करने में आगम-प्रमाण ही उपलब्ध है या और कोई भी ? उत्तर- अनुमान प्रमाण से भी इनका अस्तित्व सिद्ध होता है । लोक व अलोक का विभाग इन्हीं से होता है । आकाश, लोक तथा अलोक दोनों में व्याप्त है । जिस आकाश में धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय है, उसी में जीव व पुद्गल रहते हैं, अन्यत्र नहीं, इसीलिए उसका नाम लोकाकाश या लोक है। जिसमें जीव आदि देखे जाते हैं वह लोक है। जिसमें उक्त द्रव्य नहीं हैं उसका नाम अलोकाकाश या अलोक है। यदि धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व न माना जाए तो फिर लोक व अलोक के विभाग का हेतु कोई भी पदार्थ नहीं मिलता, अतः सहज ही यह अनुमान होता है कि कोई ऐसा द्रव्य है, जो अलोक से लोक को पृथक् कर रहा है। प्रश्न- अलोक है यह सिद्धान्त ऐच्छिक है या प्रमाण सिद्ध ? उत्तर--आगम-प्रमाण- सिद्ध । प्रश्न- जो जैनेतर दर्शन हैं, उनको क्या अलोक मानना ही होगा ? उत्तर - जो लोक को मानते हैं वे अलोक को कैसे नहीं मानेंगे ? शुद्ध व्युत्पत्ति वाला नाम तभी होता है जब उसका दूसरा कोई न कोई प्रतिपक्षी पदार्थ मिलता है । प्रतिपक्षी पदार्थ के अभाव में किसी पदार्थ का नामकरण हो नहीं सकता। प्रकाश का प्रतिपक्षी अन्धकार है। साहूकार का प्रतिपक्षी चोर है । उष्ण का प्रतिपक्षी शीत है। मृदु का प्रतिपक्षी कठोर है। स्निग्ध का प्रतिपक्षी रुक्ष है -- इत्यादि । " जितने शुद्ध-व्युत्पत्तिक नाम हैं, वे सब-के-सब पदार्थों के विरोधी स्वभाव के कारण दिए गए हैं। 'लोक शुद्ध व्युत्पत्तिक शब्द है । अतः अलोक के अस्तित्त्व से ही लोक का अस्तित्व जाना जा सकता है, अन्यथा नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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