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________________ ११० जीव-अजीद निराकरण करना और उसके महत्त्व को प्रकाश में लाना। ३. भक्ति-धर्म-शासन की भक्ति या बहुमान करना। ४. कौशल-तीर्थंकर द्वारा कथित तत्त्वों को समझने और समझाने में निपुणता प्राप्त करना। ५. तीर्थ-सेवा-साधु-साध्वी, श्रावक एवं श्राविका-ये चार तीर्थ हैं। इनकी यथोचित सेवा करना। सम्यक्त्व को स्थिर रखने के लिए छह स्थानों को जानना भी आवश्यक है, जैसे १. आत्मा है। २. आत्मा द्रव्य रूप से नित्य है। ३. आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है। ४. आत्मा अपने कृत कर्म-फल को भोगता है। ५. आत्मा कर्म-फल से मुक्त होता है। ६. आत्मा के मुक्त होने के साधन हैं। मिथ्यात्वी दो प्रकार के होते हैं : १. आभिग्रहिक २. अनाभिग्रहिक। प्रबल-कषाय के कारण जो लोग असत्य के पक्षपाती और दुराग्रही होते हैं, उन्हें आभिग्रहिक कहा जाता है। ___ जो सत्य-तत्त्व परीक्षा का अवसर न मिलने के कारण ही मिथ्यात्वी हैं, जिनमें असत्य का कोई पक्षपात नहीं है, वे अनाभिग्रहिक मिथ्यात्वी कहे जाते मिथ्यात्वी सब बातों में भ्रांत रहते हैं एवं उनकी धार्मिक प्रवृत्तियां भी लाभदायक नहीं, ऐसा मानना एकांत भ्रम है। बहुधा यह पूछ लिया जाता है कि अमुक व्यक्ति सम्यक्त्वी है या मिथ्यात्वी, पर यह कोई पूछने का विषय नहीं, यह तो अनुभवगम्य हैं। निश्चयदृष्टि से तो कौन कह सकता है, परन्तु व्यवहार में मिथ्यात्वी एवं सम्यक्त्वी को पहचानने के लिए भिन्न-भिन्न लक्षण बतलाए गए हैं। जिनमें जैसे लक्षण मिलते हैं, उन्हें वैसा ही समझ लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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