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________________ लेश्या छह सतरहवां बोल १. कृष्णलेश्या ४. तेजोलेश्या २. नीललेश्या ५. पद्मलेश्या ३. कापोतलेश्या ६. शुक्ललेश्या जीव के शुभाशुभ परिणाम को लेश्या कहते हैं। कर्म-युक्त आत्मा का पुद्गल द्रव्य के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। आत्मा के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण होता है और वे पुद्गल उसके चिंतन को प्रभावित करते हैं। पौद्गलिक सहायता के बिना विचारों का परिवर्तन नहीं हो सकता। अच्छे पुद्गल अच्छे विचारों के सहायक बनते हैं और बुरे पुद्गल बुरे विचारों के। यह एक सामान्य नियम है। किसी क्षेत्र में ऐसे अनिष्ट पुद्गल होते हैं कि वे शुद्ध विचारों को एकाएक बदल डालते हैं। जैन परिभाषा में आत्मीय विचारों को भाव-लेश्या और उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्य लेश्या कहते हैं। यद्यपि आत्मा का स्वरूप स्फटिक के समान स्वच्छ है, तो भी कर्म-पुद्गल से आवृत होने के कारण उसका स्वरूप विकृत रहता है और उस कर्म-जन्य विकृति की न्यूनता - अधिकता के आधार पर आत्मा के परिणाम (विचार) भले-बुरे होते रहते हैं। विचारधारा की शुद्धि एवं अशुद्धि में अनन्तगुण तरतमभाव रहता है। पुद्गलजनित इस तरतमभाव को संक्षेप में छह भागों में बांटा गया है। इन छह विभागों को लेश्या कहा जाता है। इनमें पहली तीन अधर्म लेश्याएं हैं और अन्तिम तीन धर्म लेश्याएं हैं। लेश्याओं के नाम द्रव्य लेश्याओं के आधार पर रखे गए हैं। १. कृष्णलेश्या - काजल के समान कृष्ण और नीम से अनन्तगुण कटु पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह कृष्णलेश्या है। २. नीललेश्या - नीलम के समान नीले और सौंठ से अनन्तगुण तीक्ष्ण पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह नीललेश्या है । ३. कापोतलेश्या7- कबूतर के गले के समान वर्ण वाले और कच्चे आम के रस से अनन्तगुण कषैले पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होता है, वह कापोतलेश्या है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003096
Book TitleJiva Ajiva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages170
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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