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कैसे सोचें ?
और प्रजातियां हैं, जितने पदार्थ हैं, उन सबका एक जोड़ है। जोड़ है इसलिए सब कुछ चल रहा है। जहां भी जोड़ में थोड़ा-सा टूटा, खराबी हो जाती है, सब कुछ लड़खड़ा जाता है। एक की टूट के कारण प्रकृति की सारी व्यवस्था प्रभावित हो जाती है।
पर्यावरण-विज्ञान का अर्थ है कि जोड़ यथावत् बना रहे। जो जैसे हैं वैसे बने रहें। प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप मत करो, उसमें तोड़-फोड़ मत करो, नहीं तो बड़ी गड़बड़ियां पैदा हो जाएंगी।
आज अणु-परीक्षणों के द्वारा तथा नाना प्रकार के अन्य परीक्षणों के द्वारा हमारी पृथ्वी पर जो एक आवरण बना हुआ है, वह क्षत-विक्षत हो रहा है। आदमी बड़ा चिन्तित है कि जब तक यह पर्यावरण सुरक्षित है, मोटाई है, तब तक सूर्य की तेज किरणों से हमारा बचाव होता है और जिस दिन यह आवरण कमजोर हो जाएगा और सूर्य की किरणें सीधी आने लगेंगी तो आदमी जी नहीं सकेगा, यह दुनिया जी नहीं सकेगी।
हम विधायक चिंतन का निर्माण करें, अपने चिंतन को विधायक बनाएं, दूसरे के चिंतन का मूल्यांकन करें। चिन्तन को विधायक बनाने के लिए अपनी चेतना को काटना बहुत जरूरी है। हमारी चेतना बहुत जुड़ी हुई चेतना है। उस पर जो जमा हुआ है, उसे काटना पड़ेगा, तराशना पड़ेगा। इतना होने पर ही वह समाज और 'पर' के सन्दर्भ में फिट हो सकेगी। दूसरे के प्रति हमारी चेतना में जो हिंसा का भाव है, असत्य का भाव है, परिग्रह का भाव है, दूसरों पर अधिकार करने का भाव है, उसे काटना होगा, तराशना होगा। यदि चेतना को नहीं तराशेंगे तो दृष्टिकोण निषेधात्मक बना रहेगा।
दूसरे के प्रति हमारा विधायक चिन्तन बने, इसके लिए जरूरी है कि हम चेतन को चेतन की दृष्टि से देखें, उसका वस्तु-निष्ठ मूल्यांकन न करें। चेतना का अनुभव किए बिना वस्तु-निष्ठ दृष्टिकोण और वस्तु-निष्ठ चेतना को बदल देना सम्भव नहीं होता।
__ एक व्यक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्ति में संयम आता है, सादगी आती है, सहिष्णुता आती है, पर तब आती है जब अपनी दृष्टि स्व-निष्ठ बन जाती है, चेतना स्व-निष्ठ बन जाती है।
सारी समस्या और निषेधात्मक दृष्टि का मूल आधार है-हमारा पदार्थलक्षी दृष्टिकोण, पदार्थ के प्रति अतिरिक्त मूल्य की भावना। जिस दिन हम ध्यान के अतल गहराई में जाकर इस सचाई का अनुभव कर सकेंगे पदार्थ को उपयोगिता की दृष्टि से देख सकेंगे, अधिकार जमाने की दृष्टि बदल
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