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कैसे सोचें ?
तो मालिक छोड़ देता है। नौकरी है, करे या न करे। किन्तु दासता की एक भयंकर परम्परा थी। व्यक्ति बिक जाता था। गाय को खरीदा, भैंस को खरीदा। खरीदने के बाद गाय और भैंस मालिक की हो जाती है। वैसे ही आदमी बिक जाता, मालिक खरीद लेता, दास उस मालिक का हो जाता, फिर वह दास कभी छोड़ नहीं सकता। मालिक चाहे मारे, पीटे, सताए कुछ भी करे-दास कभी छोड़ नहीं सकता था। यह गुलामी की मनोवृत्ति, दासता की मनोवृत्ति कभी छूटती नहीं है। रोटी के लिए आदमी बिक जाए, सुख-सुविधा के लिए आदमी बिक जाए, यह गुलामी की मनोवृत्ति है। कोई भी मनुष्य इसके लिए बिकना नहीं चाहता, गुलाम बनना नहीं चाहता। अपने स्वतंत्र अस्तित्व को वह कायम रखना चाहता है। दुनिया में जितनी स्वतंत्रता प्रिय है उतनी शायद कोई बात प्रिय नहीं है।
मनुजी ने एक बहुत अच्छा वाक्य लिखा है--'सर्व आत्मवशं सुखं, सर्व परवशं दुःखम् ।
उनके सामने प्रश्न था कि सुख और दुःख को परिभाषित कैसे किया जाए ? सुख क्या ? दुःख क्या ? सुख की क्या परिभाषा हो सकती है ? किसी कवि ने तो कह दिया
सुख-दुख क्या है ? मनोभावना, जिसने जैसा कर माना। मधुकर ने तो अपने मरने को अनन्त सुखमय जाना।।
यह तो एक साहित्यिक परिभाषा है। साहित्यिक मूल्य की परिभाषा साहित्यिक होती है। किन्तु मनुजी ने एक बहुत मर्म की बात लिखी है। उन्होंने एक सुन्दर परिभाषा दी सुख की-सर्वं आत्मवशं सुखं-अपनी स्वाधीनता ही सुख है। सर्वं परवशं दु:खम्-परवश होने का नाम ही दु:ख है। आदमी परवश हो गया। इसका मतलब है उसने दु:ख मोल ले लिया। परवश होना और दु:खी होना दो बातें नहीं होती। स्ववश होना और सुखी होना, इसमें कोई अर्थभेद नहीं होता।
स्वतंत्रता-यह हमारा सबसे बड़ा सुख है। जो सुख रोटी खाने की अनुभूति में नहीं मिलता वह सुख स्वतंत्रता की अनुभूति में मिलता है। रोटी खाना अच्छा तो है पर जहां स्वतंत्रता नहीं होती, वहां रोटी खाना कैसा सुख हो सकता है ? मुझे एक कहानी याद आ रही है
एक बार बादशाह ने सभासदों से पूछा 'बताओ, वह कौन-सी चीज है जो सबसे मीठी होती है।' कई लोगों से पूछा, सभासदों से पूछा। किसी ने कहा-रसगुल्ला सबसे मीठा होता है, किसी ने कहा-चाकलेट सबसे मीठी होती है। अब जिसको जो मीठा लगता था, उसने वही बताया।
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