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________________ अपने बारे में अपना दृष्टिकोण (१) . व्यक्ति शरीर की सीमा में जीता है। यह शरीर एक प्राकृतिक सीमा है। कोई भी व्यक्ति शरीर से मुक्त नहीं है। और इस सीमा से भी मुक्त नहीं है। जहां सीमा होती है वहां कुछ बात अलग बन जाती है। एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से अलगाव है, चाहे कितना भी सट कर बैठा हो, चाहे कितना ही निकट का सम्बन्धी हो, फिर भी इस अलगाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि शरीर ने एक सीमा बना दी। दो व्यक्ति पास में बैठे हैं। दोनों का संवेदन भिन्न-भिन्न हो रहा है। एक चिन्ता में डूब रहा है, दूसरा प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है। चाहे सगे भाई हैं, पिता-पुत्र हैं, कुछ भी हैं और बहुत निकट बैठे हैं, गाढ़ मित्र हैं, गहरा संबंध अनुभव कर रहे हैं, बहुत परिचित हैं, फिर भी संवेदन दोनों का भिन्न-भिन्न चल रहा है, एक बहुत प्रसन्न, दूसरा बहुत अप्रसन्न । यह क्यों ? कहा है-पत्तेयं विन्नु, पत्तेयं वेयणा । ज्ञानं प्रत्येक का होता है और संवेदन प्रत्येक का होता है, अपना-अपना होता है। ज्ञान अपना-अपना होता है। गुरु का ज्ञान शिष्य के काम नहीं आता। पिता का पुत्र के काम नहीं आता और बड़े भाई का ज्ञान छोटे भाई के काम नहीं आता। जैसे पैसा काम आता है वैसे ही यदि ज्ञान भी काम आता तो घर में एक ही आदमी पढ़ लेता, सबको पढ़ने की जरूरत नहीं होती। घर में एक आदमी कमा लेता है फिर दूसरा कोई आदमी कमाए या न कमाए, काम चल सकता है। यदि पैसे की तरह ज्ञान का विनिमय होता तो एक आदमी पढ़ लेता, उससे सारे आदमी अपना काम चला लेते। फिर शायद इतने स्कूलों और कॉलेजों की जरूरत नहीं होती और विद्या-संस्थानों में इतनी भीड़-भाड़ की भी जरूरत नहीं होती। इतनी सिर पच्ची भी नहीं होती। कौन किस लिए पढ़ता ? एक पढ़ा हुआ है, सबका काम चल सकता है। ज्ञान अपना-अपना होता है। संवेदन भी अपना-अपना होता है। एक आदमी का संवेदन दूसरे आदमी में संक्रांत नहीं होता। हर आदमी का अपना-अपना संवेदन होता है। जिस घटना का सम्बन्ध पांच व्यक्तियों से है, पांचों व्यक्तियों पर भिन्न-भिन्न संवेदन और भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएं होंगी। एक व्यक्ति एक घटना को लेकर इतना पीड़ित होता है कि रोटी हराम हो जाती है, जीवन बड़ा दु:खी बन जाता है। दूसरा व्यक्ति जो उसी घटना से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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