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चिन्तन का परिणाम
आप आने वाला है। जो अपने आप हो उसके लिए अधिक प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती। वह तो स्वत: प्राप्त होगा। उसे तो आना ही होगा, आप चाहें या न चाहें, प्रयत्न करें या न करें। अपेक्षा नहीं होती। हमारा कितना मतिभ्रम है कि जो स्वत: आने वाला है उसके लिए सारा का सारा प्रयत्न चल रहा है और जो पैदा करने वाला है, जहां से आदमी बदल सकता है, जहां से आदमी अच्छा बन सकता है, जहां से आदमी बुरा बन सकता है, जहां मन की शांति उपलब्ध हो सकती है, जहां सफलता और असफलता, विकास और ह्रास, शांति और अशांति, सत्य की उपलब्धि और अनुपलब्धि-ये सारी बातें हो सकती हैं उस बिन्दु की खोज हम करना नहीं चाहते। यह ध्यान की प्रक्रिया उस बिंदु की खोज की प्रक्रिया है, परिणाम की प्रक्रिया नहीं है। परिणाम चाहने वाले लोग, तात्कालिकता में विश्वास करने वाले व्यक्ति, केवल वर्तमान को उपलब्ध होने वाले व्यक्ति, वर्तमान की घटना पर व्यग्रता से चिंतन करने वाले व्यक्ति, कभी भी इस प्रक्रिया को उपलब्ध नहीं हो सकते और न ही वे ध्यान के गहरे सत्य तक जा सकते हैं। समग्रता से किसी वस्तु का विश्लेषण किये बिना जो होना चाहिए वह नहीं होता, न ठीक परिणाम आता है, न ठीक प्रवृत्ति आती है। . हमने चिंतन के संदर्भ में पांच सूत्र प्रस्तुत किए। पहला सूत्र है-समग्रता की दृष्टि । हमारी दृष्टि समग्रता की होनी चाहिए। समग्रता की दृष्टि होती है तो सत्य के प्रति हमारा झुकाव होता है। फलत: परिणाम यह आता है कि हमें सत्य उपलब्ध हो जाता है। यदि हमारे मूल में वृत्ति है आग्रह की, ऐकांतिक आग्रह की वृत्ति बैठी हुई है भीतर में, तो हमारा सारा प्रयत्न मिथ्या होगा। हम जो भी सत्य को पकड़ेंगे, वह अधूरा होगा। वह सापेक्ष बात नहीं होगी, वह निरपेक्ष बात होगी। परिणाम होगा विवाद। कोई भी क्षेत्र विवादमुक्त नहीं है। जितने विवाद चलते हैं, राजनैतिक प्रणालियों के क्षेत्र में हों, चाहे दार्शनिक क्षेत्र में, चाहे सामाजिक प्रणालियों के क्षेत्र में, वे सारे विवाद इस एकांगी आग्रह के कारण चल रहे हैं। प्रत्येक दर्शन, प्रत्येक व्यक्ति यह प्रमाणित करना चाहता है कि उसकी प्रणाली, उसकी पद्धति सबसे अच्छी है। बात तो बहुत अच्छी है। यह विश्वास भी होना चाहिए कि बहुत अच्छी है। किंतु जब एकांगी बात आ जाती है, अधूरी बात आ जाती है तो किसी की भी अच्छी नहीं। यह सही है कि भाषा में उतरने वाली कोई भी बात सर्वथा अच्छी नहीं होती, पूर्ण नहीं होती। कोई व्यक्ति कहे कि यह बात सबसे अच्छी है तो इसके साथ और जोड़ देना चाहिए कि बात अधूरी है और अधूरी अच्छी भी हो सकती है पर वह पूरी बात तो हो नहीं सकती। भाषा का वह काम नहीं कि वह पूरे सत्य को अभिव्यक्ति दे सके। सत्य अनंत है पर भाषा बहुत सीमित है। दुनिया के
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