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कैसे सोचें ? (३)
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दिया। अहिंसा की एक भावना है-अभय भावना। जब तक अभय की भावना पुष्ट नहीं होती, जीवन में अहिंसा का अवतरण ही नहीं होता। क्या डरपोक आदमी कभी अहिंसक बनेगा ? बन ही नहीं सकता। जिस व्यक्ति में प्राणों का मोह है, वह डरता है कहीं मर न जाऊं, वहां जाता हूं कहीं मर न जाऊं। अरे! मरने का भय और फिर अहिंसक ! बड़ी विचित्र बात है। एक भाई ने कहा कि जैनों की संख्या भी बहुत बड़ी है, सिक्खों से कम नहीं है किन्तु सिक्ख लोग जो चाहते हैं करवा लेते हैं, जैन लोग नहीं करवा पाते। मैंने कहा-लंबी चर्चा में तो नहीं जाना चाहता, पर एक बात तो बहुत साफ है कि सिक्ख लोग मरने से नहीं डरते, जैन लोग मरने से डरते हैं। हमने सुना है अंग्रेजों के समय में दिल्ली में जो गुरुद्वारा बन रहा था, बड़ा प्रतिरोध किया गया था। ब्रिटिश सरकार का शासन था। वह गुरुद्वारा बनाने के विरोध में थी। पर सामने जब बलिदान आने लगे, सरकार कांप उठी और स्वीकृति देनी पड़ी। जहां मरने का डर नहीं, वहां कुछ भी अशक्य नहीं। सारी आवश्यकताएं मरने के भय के साथ जुड़ी हुई हैं। जीवन के साथ मोह होता है कि कहीं मर न जाऊं अरे! ! तुम्हारे चले जाने से कहीं दुनिया तो खाली नहीं हो जाएगी ? और पीछे से बहुत रोने वाले भी नहीं हैं। सामने तो सब कहते हैं पर मरने के बाद कौन किसकी चिंता करता है ? दो-चार दिन कोई औपचारिकतावश चिंता कर लेता होगा, फिर तो कोई स्मृति नहीं। बस, एक बार वर्षगांठ आती है, याद कर लेता है, वह भी पूरे मन से नहीं, एक याद को या व्यवहार को निभाना है, आज उसकी पुण्यतिथि है, हम मंगल कामना करते हैं। इतना-सा पर्याप्त है। हमारा ही यह जीवन का मोह है। जब तक जीवन का मोह और आसक्ति नहीं छुटती तब तक विधायक विचार की स्थिति भी नहीं होती। विधायक विचार की पहली शर्त है-जीवन और मौत के प्रति अभय।
हम तात्त्विक चर्चा में बहुत रस लेते हैं। तत्त्वचर्चा को बहुत महत्त्व देते हैं, पर प्रयोग के बिना जो तत्त्व-चर्चा होती है उसमें मक्खन नहीं होता, होता है तो बहुत कम होता है। कोई आदमी बिलौना करे और नवनीत निकले अच्छी बात है। सामने दही है, बिलौना करे तो नवनीत निकलेगा, पर बहुत बार तो हम ऐसा करते हैं कि दही नहीं होता, पानी को लेकर बिलौना शुरू कर देते हैं। कोरी हांडी और कोरी मथनी से ही बिलौना शुरू कर देते हैं। कभी वह भी नहीं होता, केवल कल्पना से ही बिलौना शुरू कर देते हैं। इससे मक्खन नहीं निकलता। नवनीत तभी मिलेगा जब बिलौना भी चले और सामने यथार्थ भी हो, यानी दही भी होना चाहिए। कोरी तत्त्वचर्चा मेरी दृष्टि में या तो पानी का बिलौना है या बिना पानी का बिलौना है। दही बिलकुल
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