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________________ कैसे सोचें ? (२) यह संभावना की अस्वीकृति अज्ञान के कारण होती है। सम्भावना को अस्वीकार क्यों किया जाए ? उसके लिए अवकाश सदा से रहा है। विकास की सारी कहानी संभावना-स्वीकृति की कहानी है। जैन आचार्यों द्वारा रचित एक प्राचीन ग्रन्थ है-जोणिपाहुड' (योनिप्राभृत)। उस ग्रन्थ में जीव और अजीव, चेतन और अचेतन की जितनी योनियां हो सकती हैं, उनका वर्णन है। आश्चर्य होता है कि आज इतनी वैज्ञानिक गवेषणाओं के बाद भी परखनली' में शिशु को उत्पन्न करने की प्रक्रिया पूर्णत: सफल नहीं हुई है। किन्तु उस योनिप्राभूत ग्रन्थ में बतलाया गया है कि किसी भी प्रकार के प्राणी को उत्पन्न किया जा सकता है। उसमें उदाहरण मिलते हैं कि अमुक व्यक्ति ने हजारों भैंसे बनाए, घोड़े बनाए आदि-आदि ! घटना आती है एक भक्त राजा अपने गुरु के पास जाकर बोला-गुरुदेव! शत्रु ने नगर पर आक्रमण कर दिया है। आप कोई रास्ता बताएं। मैं उसका सामना करने में असमर्थ हूं। आपको ही बचाना होगा।' गुरु ने करुणा दृष्टि से भक्त राजा को देखा। मन करुणा से भर गया। उन्होंने उपाय खोजा। योनिप्राभृत ग्रंथ के ज्ञान का उपयोग किया। तालाब में कुछ द्रव्य फेंका और तत्काल उसमें से हजारों घुड़सवार निकलने शुरू हुए। वे निकलते ही गए। शत्रु सेना ने देखा। वह घबरा गई। उसने सोचा-कितना विशाल है इस राजा की अश्वसेना! शत्रु सेना भाग गई। दुसरा प्रसंग है। आचार्य मध्यरात्रि में अपने शिष्यों को योनिप्राभूत की वाचना दे रहे थे। उस दिन का प्रसंग था-मत्स्यों के उत्पादन की विधि । रास्ते से एक मच्छीमार गुजर रहा था। उसने कान लगाकर सारी विधि सुन ली। दूसरे ही दिन उसने उस विधि का प्रयोग किया। तालाब मछलियों से लबालब भर गया। आचार्य उसी रास्ते से रोज आते जाते थे उन्होंने सोचा कि जो तालाब आज तक मछलियों से शून्य रहता था, उसमें इतनी मछलियां कहां से आ गईं। आचार्य ने सोचा कि संभव है किसी ने यह विधि सुन ली है। दूसरे शब्दों में हम इस उत्पादन विधि को जिनेटिक इन्जीनियरिंग कह सकते हैं। यह विधि बहुत प्राचीन है। ___ इन सारी बातों का निष्कर्ष यह है कि हम कभी भी सम्भावना के द्वार को बन्द न करें। आस्था के निर्माण का अर्थ है-सम्भावना की स्वीकृति । जहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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