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________________ '२६० कैसे सोचें ? हमारी भावधारा जब सत् के साथ जुड़ती है तब हम ऊपर चढ़ सकते हैं, हमारा आरोहण हो सकता है। ज्योंही भावधारा असत् के साथ जुड़ती है तब अवरोहण शुरू हो जाता है, आदमी नीचे उतर आता है। जप का विकास, मन्त्र का विकास, इसी भावना पर हुआ था कि एक ऐसा आलम्बन बना रहे जिससे बुरे भावों को आने का अवसर कम से कम मिले। अभय का दूसरा साधन है-प्रेक्षा। जैसे-जैसे देखने की शक्ति का विकास होता है, हमारी दृष्टि सत्याग्रही बन जाती है। डर जितना भी लगता है वह असत्य के कारण लगता है। चाहे असत्य मान्यता, असत्य का सिद्धांत, असत्य की धारणा, असत्य का संकल्प-जो भी असत्य का पक्ष है वह सारा भय पैदा करने वाला है। जैसे-जैसे दर्शन की शक्ति विकसित होती है और सचाई के निकट जाते हैं, कल्पनाओं से दूर हटते हैं, हमारी शक्ति बढ़ती जाती है और भय अपने आप कम होता जाता है। यथार्थ में भय होता नहीं। भय मूर्छा में होता है, असत्य में होता है। प्रेक्षा के द्वारा हमारी मूर्छा का चक्र टूटता है और जब मूर्छा का चक्र टूटता है तो भय अपने आप समाप्त हो जाता है। प्रेक्षा, अनुप्रेक्षा, मन्त्र का जप-ये सारे साधन विकसित हुए अभय के विकास के लिए। प्रत्येक परम्परा में-जैन परम्परा, वैदिक परम्परा, बौद्ध परम्परा-सब में भय का निवारण करने वाले मन्त्रों का विकास हुआ और बहुत सारे मन्त्र जपे जाते हैं भय को दूर करने के लिए। कुछ लोग सोते-सोते डर जाते हैं। कुछ लोग रात को डरावने स्वप्न देखते हैं, डर जाते हैं। कुछ लोग अकारण ही डर जाते हैं। इन अवस्थाओं से बचने के लिए सैकड़ों-सैकड़ों 'अभय मन्त्रों' का विकास हुआ है और उनका बहुत प्रयोग भी होता है, परिणाम भी आता है और मन:स्थिति बदल जाती है। औषधियों का विकास भी हुआ है। ऐसी भी औषधियां हैं, जड़ियां हैं, कितना भी भय लगे जड़ी को सिराहने रख दो, बुरे स्वप्न आने बन्द हो जाएंगे। जड़ियों का विकास, मन्त्रों का विकास और प्रयोग इस दिशा में हुआ और उसके परिणाम भी अच्छे आए। अभय का एक और महत्त्वपूर्ण उपाय है। उसका सम्बन्ध है हमारे चरित्र से, व्यवहार से। भय पैदा होता है हिंसा से, असत्य से और संग्रह से। ये तीन बड़े कारण हैं जो हमारे चरित्र से सम्बन्ध रखते हैं। हर आदमी अनुभव करता होगा कि संग्रह के कारण कितना भय पैदा होता है ? बाहर गये और ध्यान आया कि कमरे के तो ताला ही नहीं लगाया है, अलमारी खुली रह गई है, वह बीच में ही दौड़ पड़ता है वापस । कहीं कोई पहले न पहुंच जाए। कोई बाहर से नहीं, घर का आदमी भी भीतर न घुस जाए। वह डर जाता है। लौटता है और संभालता है। क्यों डरा ? कोई डराने वाला तो नहीं था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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