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१८
कैसे सोचें ?
सन्देह पैदा नहीं होता । प्रवंचना के तत्त्व हैं, इसलिए संदेह होने लगा ।
एक व्यापारी बाहर से माल लेकर आया । रास्ते में चुंगी की चौकी थी । वह आंख चुराकर चला गया। चुंगी के अधिकारी को पता लग गया। अब वह अधिक सतर्क रहने लगा। इससे पहले चुंगी चुराने का प्रसंग नहीं आया था, इसलिए अधिकारी विश्वस्त रहते थे । स्वयं व्यापारी आकर उनको बता जाता, चुंगी दे जाता । अब एक आदमी ने प्रवंचना की और अधिकारी सारे व्यापारियों की तलाशी लेने लग गया। पहले तलाशी नहीं ली जाती थी, क्योंकि प्रवंचना का तत्त्व उभरा नहीं था, कोई प्रवंचना नहीं करता था । एक ने प्रवंचना की और सबको परिणाम भुगतना पड़ा।
प्रवंचना संशय को पैदा करती है । प्रवंचना के बिना संदेह उत्पन्न ही नहीं होता । आज सामाजिक वातावरण ही ऐसा बन गया है कि हर आदमी विश्वसनीय बात में भी अविश्वास करता है। वह किसी का भरोसा नहीं करता। बेटा बाप का भरोसा नहीं करता और बाप बेटा का भरोसा नहीं करता । नेपोलियन ने एक बार कहा था- मेरे शब्दकोश में 'असंभव' जैसा शब्द ही नहीं है, वैसे ही आज के शब्दकोशों से 'विश्वास' जैसे शब्द को निकाल देना चाहिए । सर्वत्र संशय ही संशय । संशय के बिना कोई बात ही नहीं होती । चिंतन का एक दोष है - संशय । जब आदमी संशय के आधार पर चिन्तन करता है तब चिन्तन विधायक नहीं होता, त्रुटि रहित नहीं होता । वह कभी भी संतुलित चिन्तन नहीं हो सकता ।
जीवन में आस्था का स्थान बहुत ऊंचा है। जिस जीवन में आस्था नहीं होती, वह जीवन आधारशून्य होता है । उस जीवन में सफलता का वरण नहीं हो सकता। आस्था के तीन आधार स्तम्भ हैं- क्षमता, कर्तृत्व और सार्वभौम नियमों की ज्ञप्ति ।
पहल तत्त्व है - क्षमता । प्रत्येक व्यक्ति को यह विश्वास होना चाहिए कि उसमें असीम क्षमता है ।
दूसरातत्त्व है - कर्तृत्व । हर आदमी में यह भरोसा होना चाहिए कि वह उस कार्य को कर सकता है । उसमें कर्तृत्व शक्ति है ।
तीसरा तत्त्व है- सार्वभौम नियमों का ज्ञान । शक्ति के सविभौम नियमों का ज्ञान और उन पर विश्वास होना चाहिए ।
आस्था का अर्थ किसी पर भरोसा करना नहीं होता। उसका अर्थ है
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