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________________ २४२ कैसे सोचें ? हैं, वह अनुवाद कठिन होता है, उसे समझना सरल नहीं होता। अनुवाद किया जाता है मूल ग्रंथ को समझने के लिए, पर उस अनुवाद को समझने के लिए दूसरा अनुवाद और चाहिए और दूसरे अनुवाद को समझने के लिए तीसरा अनुवाद और चाहिए। यह है अनुवाद की कठिनता। मूल शब्द था ‘इन्द्र' । अनुवाद करने वाले ने शब्द रखा 'शतक्रतु।' इन्द्र का पर्यायवाची नाम है 'शतक्रतु' । इन्द्र कहने से तो सब कोई समझ जाते हैं, पढ़ा-लिखा भी समझ लेता है और अनपढ़ भी समझ लेता है, पर 'शतक्रतु' शब्द को कौन समझेगा। शब्द भारी-भरकम बन गया, उसको समझना दुरूह हो गया। यह होता है। सहज-सरल का अनुवाद कठिन हो गया, कठिनतर हो गया। आदमी का जीवन बहुत सरल है। उसके जीवन की आवश्यकताएं भी बहुत सरल हैं, किन्तु उसका अनुवाद इतना जटिल हो गया कि आदमी पग-पग पर उलझ जाता है। बात समझ में नहीं आती, पर यह बात तो बहुत सीधी है कि डरो मत, कभी मत डरो, इससे बीमारियां कम होंगी, बुढ़ापा जल्दी नही आएगा, मौत जल्दी नहीं झाएगी। बहुत सीधा-सा गणित है। पर इस गणित को आदमी समझता नहीं। वह डरता है बीमारी से, बुढ़ापे से और मौत से। ज्यों-ज्यों डरता है, तीनों जल्दी-जल्दी आते हैं। पता नहीं ऐसा क्यों होता है ? बेचारे आदमी का दोष ही क्या है ? यह तो भीतर में बैठा हुआ कोई कर रहा है। आदमी की अन्त:स्रावी ग्रंथियां ऐसे स्राव करती हैं, भीतर में बैठा कर्मशरीर ऐसे रसों का विपाक कर रहा है कि वे बाहर आते हैं और आदमी को प्रभावित कर देते हैं। अन्त:स्रावी ग्रंथियों के स्राव आदमी की आदतों को प्रभावित करते हैं, उसकी भावदशा और कषाय को प्रभावित करते हैं। तीनों मूल टेम्परामेंट और इमोशन उन ग्रंथियों से प्रभावित होते हैं और इसीलिए इनसे प्रभावित आदमी सीधे गणित को भी नहीं समझ पाता। जब कोई किसी से प्रभावित हो जाता है फिर उसके सामने सचाइयां कुछ भी काम नहीं कर सकती। अप्रभावित दशा सत्य के खोज की दशा है। आदमी अप्रभावित रहे तब तो ठीक चलता है और जब वह किसी के प्रभाव में आ जाता है तब उसे भगवान् भी नहीं बचा सकता। वह ऐसा प्रभावित हो जाता है, भले फिर वह किसी वस्तु से प्रभावित हो या किसी व्यक्ति से प्रभावित हो। जब वह किसी वस्तु से प्रभावित होता है और जब तक वह वस्तु उसे नहीं मिलती, तब तक वह सुख से सांस तक नहीं ले सकता। रात-दिन उसकी वही धुन रहती है कि 'वह चीज मिले', 'वह चीजे मिले ।' नहीं मिलती है तो चोरी करके भी उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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