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कैसे सोचें ?
को ढूंढा। वे नहीं मिले। उसने मन में कल्पना जागी कि हो सकता है रात को नींद में दांतों को निगल गया। तत्काल उसके पेट में असह्य पीड़ा होने लगी। पीड़ा से छटपटाने लगा। घर वाले आए। डाक्टर को बुलाया। डाक्टर ने कहा ऑपरेशन होगा। कल्पना-कल्पना में सारी स्थिति बिगड़ गई। उसे यथार्थ का बोध-सा होने लगा। पेट में असह्य पीड़ा हो रही थी। वह यथार्थ थी, पर थी वह कल्पनाजनित। कुछ देर बाद वही बच्चा हाथ में दांतों की जोड़ी लिए आ पहुंचा। दांतों को देखते ही आदमी का दर्द गायब हो गया। वह स्वस्थ हो गया। घर वाले देखते ही रह गए।
यह हमारे जीवन में प्रत्यक्ष-अनुभव होता है कि रोग नहीं मारता, रोग का भय मारता है।
भय की सातवीं परिस्थिति है-अश्लोक भय । अश्लोक का अर्थ है-अपयश । आदमी अपयश से डरता है। वह सदा यह चाहता है कि उसकी साख बनी रहे, उसकी मान-प्रतिष्ठा बनी रहे, उसका यश खंडित न हो। वह अपने यश को बनाए रखने के लिए झूठे मानण्डों को अपनाता है, कष्ट भी सहता है और अनेक कठिनाइयों का सामना करता है। इन सबके पीछे अश्लोक भय काम करता है। इस भय से प्रताड़ित व्यक्ति कभी-कभी बहुत अनर्थकारी कार्य भी कर डालता है।
प्रेक्षा-ध्यान के साधक यदि इस भेदरेखा को समझ लें तो बहुत लाभान्वित हो सकते हैं। भय और भय की परिस्थिति एक नहीं, दो हैं यह आज के प्रवचन का निष्कर्ष-सूत्र है।
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