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भय के स्रोत
हमारे भीतर मूर्च्छा के परमाणु हैं । मूर्च्छा एक गंगोत्री है। उसकी अनेक धाराएं हैं। गंगोत्री एक है, पर उसकी अनेक धाराएं, जगह-जगह फैली हुई हैं। भय उसकी एक धारा है । भय - उत्पत्ति के कारण हमारे भीतर विद्यमान हैं। हम आन्तरिक कारणों के विषय में बहुत कम जानते हैं । हम परिस्थिति के परिवेश में ही सब कुछ सोचते हैं। हम परिस्थितिवादी हो गए हैं । हमारी यह दृढ़ धारणा बनी हुई है कि जैसी परिस्थिति होती है, आदमी वैसा ही बन जाता है। इस धारणा में कुछ सचाई है, इसलिए आदमी इसी भाषा में सोचता है, बोलता है कि मैं क्या करूं, जैसी परिस्थिति होती है, आदमी को बैसा बनना ही पड़ता है । इस अवधारणा से मुक्ति पाना भी कठिन हो गया है। यह अवधारणा पूरी सचाई नहीं है। पूरी सचाई तब हो जब हम दोनों
तों को मिला दें। पहली बात है-जैसी परिस्थिति होती है, आदमी वैसा ही बन जाता है। दूसरी बात है-जैसा कर्म का विपाक होता है, आदमी वैसा ही बन जाता है । इन दोनों तथ्यों को मिला देने से सचाई का बोध हो सकता है । इसके साथ तीसरी बात और जोड़नी होगी। तीन बातें होंगी - परिस्थिति, कर्म - संस्कार और परिणमन। ये तीनों बातें जुड़ती हैं तब पूरी सचाई बनती है ।
आत्मा में कर्म का योग भी है और वह परिस्थिति से प्रभावित भी होती है । फिर भी आत्मा का अस्तित्व स्वतंत्र बना हुआ है, वह सर्वथा दबी हुई नहीं है । अगर वह परिस्थिति और कर्म से सर्वथा प्रभावित हो जाए तो आत्मा अनात्मा बन जाए, उसका अस्तित्व समाप्त हो जाए । परन्तु जिसका अस्तित्व एक क्षण के लिए भी हो गया, वह कभी समाप्त नहीं हो सकता । अस्तित्व स्थायी होता है, ध्रुव होता है । आत्मा का अस्तित्व अपने स्वयं के परिणमन के आधार पर होता है । परिणमन दो प्रकार का होता है। एक है स्वाभाविक परिणमन और दूसरा है वैभाविक परिणमन । एक है अपने अस्तित्व के साथ चलने वाला पर्याय और दूसरा है बाहरी निमित्तों और कारणों के साथ बदलने वाला पर्याय । ये दो प्रकार के पर्याय, परिणमन या निमित्त होते हैं । आत्मा के अस्तित्व का जो स्वाभाविक परिणमन है, वह भी निरन्तर सक्रिय रहता है और अपने अस्तित्व को बनाए रखता है । परिणमन बराबर काम कर रहा है, निरन्तर गतिशील हो रहा है कि कहीं अस्तित्व समाप्त न हो जाए । यह परिणमन अस्तित्व की बार-बार स्मृति दिला रहा है ।
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अंधकार आता है तब भी प्रकाश बराबर बना रहता है। दोपहर का समय है । आकाश में गहरे बादल उमड़ आए हैं। घनघोर घटा । अंधकार हो गया है, फिर भी दिन है - इसकी विस्मृति नहीं होती। रात की घटा और दिन की घटा में अन्तर होता है। दिन में गहरी घटा होने पर भी दिन का बोध
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