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________________ अभयदान २१७ है। पर इस कठिनाई को भी मैं जानता हूं कि जानने वाले हजारों-लाखों व्यक्तियों के लिए भ्रम भी पैदा कर जाते हैं। क्योंकि जो जानने वाले होते हैं, उनको मानने वाले भी हजारों लोग मिल जाते हैं, यह भी एक कठिनाई है। एक जानने वाला होता है, पर उसको मानने वाले लाखों लोग हो जाते हैं। केन्द्र छोटा होता है, परन्तु परिधि बहुत बड़ी बन जाती है। सारी कठिनाई परिधि में ही पैदा होती है, केन्द्र में नहीं। यदि सारे के सारे जानने वाले हों तो कोई कठिनाई नहीं होती। महावीर ने कहा-सारी बाधाएं और विघ्न उस व्यक्ति के सामने बार-बार उपस्थित होते हैं जो ज्ञाता और द्रष्टा नहीं है। जो स्वयं नहीं जानता और स्वयं नहीं देखता, वह इन विघ्नों से आक्रान्त होता है। अपने ज्ञान से जो स्वयं नहीं जानता, अपनी आंखों से जो स्वयं नहीं देखता, उस व्यक्ति को पग-पग पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जानने और देखने का प्रसंग आता है, ज्ञाता और द्रष्टा भाव का प्रसंग आता है, पर आदमी जानबूझ कर आंखें मूंद लेता है, दृष्टि को समाप्त कर देता है और तब वह विघ्नों से घिर जाता है। हमारा प्रयत्न हो कि हम स्वयं जानें, देखें। इस प्रयत्न में शरीरातीत स्थिति का अनुभव करना होगा। साधना का परम सूत्र है-शरीरातीत स्थिति का अनुभव । शरीर-दर्शन को एक बार छोड़ना पड़ता है। शरीर-दर्शन के साथ दो बातें जुड़ी हुई होती हैं-एक है जीवन और दूसरी है मृत्यु । दोनों साथ जुड़े हुए हैं। जब हम जीवन को देखते हैं तब आसक्ति पैदा होती है और जब मौत को देखते हैं तो भय पैदा होता है। मूर्छा के ये दोनों पहलू-आसक्ति और भय शरीर से जुड़े हुए हैं। शरीर को बनाए रखते हैं तो आसक्ति पैदा होता है। भय है ही क्या ? उत्तराध्ययन सूत्र का एक प्रसंग है। राजा संप्रति शिकार करने गया। सामने हिरण आया। बाण छोड़ा। वह मर गया। राजा हिरण के पास गया। इधर-उधर देखा। उसकी दृष्टि एक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग के मुद्रा में स्थित एक मुनि पर पड़ी। मुनि को देखते ही राजा भयभीत हो गया। उसने सोचा, अन्याय हो गया। लगता है यह हिरण साधु का था। मैंने इसे मार डाला। साधु क्या कहेगा ? यह तपस्वी है। यदि क्रुद्ध होकर मुझे शाप दे देगा तो मैं मारा जाऊंगा। मारने वाला भी मौत से बहुत घबराता है, डरता है। मारने वाला भी मरना नहीं चाहता, बहुत भयभीत रहता है। वह बहुत सारे लोगों को मारता है, पर मरने के भय से अपनी सघन सुरक्षा की व्यवस्था करता है। भय इतना घनीभूत हो जाता है कि वह अपनी सुरक्षा के लिए हजारों व्यक्तियों को लगाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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