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कैसे सोचें ?
नहीं कहता आप आत्मा या परमात्मा को न मानें, किन्तु मैं तो यह कहना चाहता हूं कि आप मानने तक ही सीमित न रहें, वहीं अटके न रहें, उससे आगे जानने की सीमा में भी प्रवेश करें। मानने की बात बचपन की बात हो सकती है। सदा बचपन में ही जीना सार्थक नहीं कहा जा सकता। बच्चा यदि सदा-सदा के लिए बच्चा ही बना रहे, कभी युवा या प्रौढ़ न बने, तो कैसा लगेगा ? बच्चा मां की बात मानता है, पिता और भाई की बात को मानता है, बड़े-बूढ़ों की बात मानता है, किन्तु जब वह बड़ा हो जाता है तो मानना कम हो जाता है, और जानने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है। मानना पीछे छूट जाता है, जानना आगे आ जाता है।
दर्शन और धर्म के क्षेत्र में भी ऐसा होना चाहिए। किन्तु आश्चर्य है कि ऐसा नहीं हो रहा है। इस क्षेत्र में आदमी भी मानने में ही अधिक विश्वास करते हैं, जानने का प्रयत्न कम करते हैं। लगता है कि जीवन भर वे मानते ही चले जाएंगे। यह कैसा बचकानापन! इससे होगा क्या ? आदमी को मानने की भूमिका से हट कर जानने की भूमिका में भी आना चाहिए।
प्रेक्षा का प्रयोग जानने का प्रयोग है, मानने का नहीं। सबसे पहले शरीर के नियमों को जानें। स्थूल शरीर के नियमों को जान लेने के बाद सूक्ष्म शरीर के नियमों को जानें। इसलिए साधक को एनेटॉमी का भी सम्यग ज्ञान होना चाहिए। कर्म-सिद्धांत का भी अध्ययन करना चाहिए। सूक्ष्म शरीर की संरचना और घटकों को भी जानना चाहिए। जब हम स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर के नियमों को जान लेंगे, जब हम कर्म-सिद्धांत को जान लेंगे तब उस भूमिका में एक सही जिज्ञासा पैदा होगी। तब हमारे मन में प्रश्न उभरेगा-क्या आत्मा है ? क्या शरीर से परे भी कोई तत्त्व है ? क्या परमात्मा का अस्तित्व है ? यह वास्तविक जिज्ञासा होगी और अनेक जिज्ञासाओं का द्वार खुलेगा। इससे पूर्व द्वार खुलता ही नहीं, द्वार बंद होता है। 'मानने' का परिणाम है द्वार को बन्द करना। मानने से छुटकारा तो शीघ्र हो जाता है। मैंने कहा और आपने मान लिया। इससे हुआ क्या ? परिणाम तो शून्य ही रहा। जानने के लिए हजारों वर्ष बिताने पड़ते हैं। सीधा रास्ता है मानना और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता है जानना। जानने के लिए बहुत श्रम और तपस्या करनी पड़ती है, खपना पड़ता है, तपना पड़ता है और जपना पड़ता है। मानने के लिए श्रम नहीं करना पड़ता, कोई तपस्या नहीं करनी पड़ती। न खपना पड़ता है, न तपना और जपना पड़ता है। कहा और मान लिया। करना-धरना कुछ भी नहीं है। मानने वाले वहीं अटक गए, किन्तु जिन लोगों ने जानने का प्रयत्न किया, उन्होंने दुनिया को बहुत बड़ा अवदान दिया
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