SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० कैसे सोचें ? नहीं की जा सकती। अहिंसा का पूरा विकास आत्मानुशासन के आधार पर हुआ है। हृदय-परिवर्तन का दूसरा सूत्र है-अभय का विकास । अभय के बिना अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती। भय मौलिक मनोवृत्ति है। आदमी डरता है। डर समूचे जीवन में व्याप्त है। आदमी को अतीत का भय, वर्तमान का भय और भविष्य का भय-तीनों कालों का भय सताता रहता है। आदमी अतीत के भय से त्रस्त हो जाता है। जो घटना घट चुकी, जो घटना चली गई, उसका भी भय आदमी के संस्कारों में अंकित हो जाता है और आदमी जीवन उस भय से डरता रहता है। आदमी के जीवन में एक घटना घटी। आदमी उससे भयाक्रांत हो गया। उसने भय को मिटाने के उपाय किए, पर सफलता नहीं मिली। एक व्यक्ति से पूछा। उसने कहा, सबसे सरल और अचूक उपाय यह है कि तुम घटना को भूल जाओ। उसे याद मत करो। उसे यह उपाय अच्छा लगा। अब वह निरन्तर यह सोचने लगा-'मुझे उस घटना को भूलना है', 'मुझे उस घटना को भूलना है।' भूलने-भूलने के बहाने स्मृति की पकड़ इतनी मजबूत हो गई कि वह घटना निरन्तर तरोताजा रहने लगी। अतीत का भय रहता है। भय की स्मृतियां बहुत सताती हैं। आदमी को वर्तमान का भय भी सताता है। यह न हो जाए, वह न हो जाए, चोर न आ जाए, अफसर न आ जाए-वर्तमान का यह भय भी बहुत पीड़ादायक होता है। भविष्य का भय है-कल्पनाजनित भय। वह भी कम भयानक नहीं होता। आदमी बार-बार सोचता रहता है कि अवस्था आ रही है, बूढ़ा हो जाऊंगा तो क्या होगा ? क्या बच्चे सेवा करेंगे ? क्या भोजन सुख से मिल पाएगा? धन नहीं रहेगा तो क्या करूंगा? अस्वस्थ हो जाऊंगा तो क्या होगा? इस प्रकार एक के बाद दूसरी चिंता उसे घेरे रहती है। डर मनुष्य के जीवन के क्षण-क्षण में साथ चलता है। किन्तु मनुष्य ने विकास किया अभय का। साधना करते-करते इतना विकास हो जाता है कि भय शब्द ही समाप्त हो जाता है। आदमी ने उन सांपों के साथ भी मैत्री की स्थापना की जिनका नाम सुनते ही आदमी कांप उठता है। उसने ऐसे हिंसक पशुओं के साथ भी मैत्री स्थापित की, जो आदमी को मारकर खा जाते हैं। आदमी ने मैत्री का विकास किया, अभय का विकास किया। जैसे-जैसे जीवन में अहिंसा, अभय और मैत्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy