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________________ हृदय परिवर्तन : एक महान उपलब्धि १९९ बौद्धिक विकास नहीं है तो अनैतिक मूल्य भी नहीं हैं। वे कभी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करने । वे सदा बंधी-बधाई मर्यादा में चलते हैं, अतिक्रमण नहीं होता। न नैतिकता और न अनैतिकता। मनुष्य ने अपनी बुद्धि के द्वारा ऐसे मूल्यों की स्थापना की जो समाज के लिए कल्याणकारी नहीं हैं, अकल्याणकारी हैं। दिशा-परिवर्तन हुआ और उसने नैतिक मूल्यों की स्थापना की। दंडशक्ति का प्रयोग करते हैं। प्राणियों की बात छोड़ दें, वनस्पति जगत् में भी दण्डशक्ति का प्रयोग चलता है। चींटियों में भी यह प्रचलित है। मधुमक्खियां दण्डशक्ति का प्रयोग करती हैं। खोज करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि प्राणीमात्र में दण्डशक्ति का प्रयोग और बलप्रयोग-दोनों चलते हैं। ऐसे वृक्ष होते हैं जो दण्डशक्ति का प्रयोग कर प्राणियों को फंसा लेते हैं। ऐसे वृक्ष हैं जिनकी पत्तियां पहले खुली होती हैं, फिर ज्योंही कोई प्राणी आकर उन पर बैठता है, वे सिकुड़ जाती हैं। प्राणी उसमें फंस जाता है। वे पत्तियां प्राणी को निचोड़ कर, निस्सार खोल को बाहर फेंक देती हैं। एक नहीं, अनेक ऐसे वृक्ष हैं, पौधे हैं, जो बलप्रयोग करते हैं। वे अन्य जीवों को चूसते हैं, उनका शोषण करते हैं। इसी तरह चींटियां सामुदायिक व्यवस्था का पालन करती हैं। चींटियों की रानी सारी व्यवस्था का संचालन करती है। जो चींटियां काम करने से जी चुराती हैं, आलसी हो जाती हैं, उन्हें समाज से बाहर निकाल दिया जाता है। मधुमक्खियों की भी यही व्यवस्था है। रानी मधुमक्खी काम न करने वाली मधुमक्खियों को दण्ड देती है, उनका बहिष्कार करती है और दण्डस्वरूप उनसे अधिक काम कराती है। समूचे प्राणीजगत् में दण्ड की और बल-प्रयोग की व्यवस्था चलती है। मनुष्य ने दंडशक्ति के स्थान पर आत्मानुशासन का विकास किया है। उसकी धारणा यह रही कि बल-प्रयोग कम हो, दंडशक्ति का प्रयोग कम हो और आत्मानुशासन जागे। हृदय-परिवर्तन का पहला सूत्र है-आत्मानुशासन । जब तक आत्मानुशासन का विकास नहीं होता तब तक नहीं माना जा सकता कि हृदय-परिवर्तन घटित हुआ है। हृदय-परिवर्तन एक अमूर्त क्रिया है हमारी चेतना की। उसे देखा नहीं जा सकता। किंतु आत्मानुशासन के विकास को देखकर जान जाते हैं कि इस व्यक्ति का हृदय-परिवर्तन हो गया है। ___आत्मानुशासन का विकास समाज और सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा का एक महत्त्वपूर्ण अवदान है। 3त्मानुशासन के बिना अहिंसा की कल्पना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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