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हृदय परिवर्तन का प्रशिक्षण
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होते ही वह खाने के लिए तड़प उठता, पर उसने इस सूक्त का अभ्यास प्रारंभ कर दिया। अभ्यास चलता रहा। कभी मन में उच्चावच भाव आया, रोष आया, अन्यथाभाव आया, फिर भी सम्हलता हुआ चलता रहा। अभ्यास पुष्ट होता गया। अनुशासन के समय शान्त रहा जा सकता है, ऐसी स्थिति बन गई।
अनुशासन आग है। जहां-जहां अनुशासन होता है वहां-वहां आग भभकती है। अभ्यास से ही उसके ताप को सहा जा सकता है।
कूरगडू का अभ्यास चालू था। पर्व का दिन आया। सभी साधुओं ने उपवास किया। आचार्य ने भी किया। प्रात:काल होते ही कूरगडू मुनि भिक्षा के लिए तैयार होकर आज्ञा लेने के लिए आचार्य के सामने आया। आचार्य ने समझाया। उपदेश दिया। कठोरता से कहा। वह शान्त रहा। उसने हाथ जोड़कर शान्त भाव से कहा-'गुरुदेव ! आपकी शिक्षा अमूल्य है, पर मैं विवश हूं।' आज्ञा लेकर वह गया। खीचड़ी ले आया। आचार्य को दिखाई। आचार्य का पारा उतरा नहीं था। वे पुन: बोले-सभी साधु उपवासी हैं और तू खाएगा? आवेश में उन्होंने बहुत कड़ी-कड़ी बातें कह दीं। कूरगडू शांत था। अन्त में आचार्य ने गुस्से में आकर उसके पात्र में थूक दिया। कूरगडू फिर भी शांत था। वह अपने स्थान पर गया। शान्तभाव से, बिना घृणा किए, भोजन कर लिया। उसका मन संतुलित था। उसने सोचा, कितने महान् हैं गुरु। उसने गुरु का दोष नहीं देखा। उनके वाक्यों को गुण रूप में स्वीकारा। कहा जाता है कि भोजन करते समय उसमें समताभाव का इतना उत्कर्ष हुआ कि कूरगडू केवली बन गया। गुरु अकेवली ही रह गए।
उपवास करना कोई बड़ी बात नहीं है और खाना कोई छोटी बात नहीं है। हमारा मापदण्ड भिन्न है। न खाने वाले को बड़ा मान लेते हैं और खाने वाले को छोटा मान लेते हैं। ये सब गौण बातें हैं। मुख्य तथ्य यह है कि अभ्यास के द्वारा समता का कितना विकास हुआ, चेतना को समता में कितना प्रतिष्ठत किया, आन्तरिक चेतना का जागरण कितना हुआ ? मुख्य बात है कि राग-द्वेष कितना कम हुआ, गर्मी-सर्दी कितनी घटी ? अनुकूलता हमारे जीवन की सर्दी है और प्रतिकूलता हमारे जीवन की गर्मी है। जो इनसे बच जाता है वह महान् चेतना का जागरण कर लेता है। किन्तु यह अभ्यास के बिना संभव नहीं है।
प्रशिक्षण के तीन तथ्यों-आस्था का निर्माण, उपाय-बोध और अभ्यास की जब एक धारा बनती है, तब ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका पार न मिल सके। ऐसी कोई दुस्तर नदी नहीं जिसे तैरा न जा सके।
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