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कैसे सोचें ?
कि उसे अपने बिन्दु से हटाने की इच्छा ही नहीं हुई। मैंने सोचा, एक ओर समस्या है कि मन जमता ही नहीं, तो दूसरी ओर यह समस्या है कि मन टूटता ही नहीं। कभी तो समस्या होती है कि दूध जमता ही नहीं और कभी इतना गाढ़ा जम जाता है कि उसे काटना पड़ता है। दोनों ओर समस्याएं हैं।
उपाय-बोध के द्वारा सब कुछ हो सकता है। उपाय नहीं होता तो दूध दही नहीं बनता।
हम पर्यायों के जगत में जीते हैं। द्रव्य के जगत में हमारा प्रवेश नहीं है। हमारा सारा जीवन पर्याय का जीवन है। पर्याय अनन्त हैं। उनका कहीं अन्त नहीं आता। इन पर्यायों में आदमी खो जाता है। एक के बाद दूसरा पर्याय उभरता रहता है। दूध के बाद दही, दही के बाद मक्खन । तरलता के बाद सघनता और सघनता के बाद प्रगाढ़ता का पर्याय । ये सारे पर्याय आते हैं पर ये सारे पर्याय निमित्त से होते हैं। पर्याय होते हैं उपाय के द्वारा, युक्ति के द्वारा।
___हम प्रेक्षा-ध्यान के अभ्यास से युक्तिबोध करते हैं, युक्तियों को जानते हैं कि मन को गाढ़ा कैसे बनाया जा सकता है ? मन को कैसे जमाया जा सकता है ? उसकी तरलता को कैसे समाप्त किया जा सकता है ? अनेक उपाय हैं। रंगध्यान एक उपाय है। चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा एक उपाय है। शरीर-प्रेक्षा एक उपाय है। देखना एक उपाय है, बहुत बड़ा उपाय है। सोचना उतना बड़ा उपाय नहीं है, जितना बड़ा उपाय है देखना। सोचना मन का एक कार्य है। सोचने का अर्थ है-चिंतन करना, चंचल होना। चंचलता और चिंतन दोनों एक साथ होते हैं। चंचलता के बिना चिन्तन नहीं होता और चिन्तन के बिना चंचलता नहीं होती। सोचना एक पर्याय है, देखना दूसरी पर्याय है। देखने में चंचलता अपने आप समाप्त हो जाती है। देखना और जानना संवेदन से मुक्त होना है। संवेदन चंचलता पैदा करता है। ज्ञान और दर्शन, जानना और देखना चंचलता को समाप्त करते हैं।
दर्शन बहुत बड़ा तत्त्व है। आज का दर्शन बुद्धि के सहारे चलने वाला दर्शन है। यह बुद्धि और तर्क के जाल में लिपटा हुआ दर्शन है। यह दर्शन आदमी को भटकाता है, पहुंचाता नहीं। दर्शन का मूल अर्थ है-साक्षात्कार । जहां साक्षात्कार होता है वहां सारी दुनिया समाप्त हो जाती है, सारे व्यवधान समाप्त हो जाते है, ज्ञेय और ज्ञाता के बीच की दूरी मिट जाती है। ज्ञाता ज्ञेय को साक्षात् जान लेता है, अव्यवहित जान लेता है, निकटता से जान लेता है। दोनों में तादात्म्य स्थापित हो जाता है। यह है प्राचीन दर्शन, मूल दर्शन ।
मैं इसी दर्शन की चर्चा कर रहा हूं। प्रेक्षा-ध्यान दर्शन का प्रयोग है,
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