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________________ १८४ कैसे सोचें ? तर्जना, ताड़ना दे रहा है। कोई व्यक्ति वासना से अभिभूत होकर राग कर रहा है। अनेक प्रकार की प्रवृत्तियां होती हैं। प्रशस्त राग और प्रशस्त द्वेष छोड़ना मुश्किल है, असंभव है । मैं असंभव को संभव बनाने की बात नहीं कर रहा हूं कि ध्यान के माध्यम से चेतना का ऐसा निर्माण करें, जिससे राग-द्वेष समूचा नष्ट हो जाए। यह संभव है, पर यह बहुत आगे की अवस्था है। अनेक लोग सोचते हैं कि ध्यान के द्वारा वीतराग बन जाएंगे तो फिर जीवन कैसे चला पाएंगे ? जीवन की चिन्ता करें। अभी तो चिन्ता वह करें कि वात, पित्त और कफ का दोष बढ़ गया है, बीमारी बढ़ गई है, उसे कम कैसे करें ? दोषों का समीकरण कैसे करें ? आज चिन्ता का विषय यह होना चाहिए कि मानसिक चिन्ताएं जो बढ़ी हैं, उनमें राग आदि का मुख्य हाथ है। हम उन बीमारियों को कैसे मिटाएं ? साधना, ध्यान, हृदय-परिवर्तन या विधायक भावों की चर्चा इसीलिए की जाती है कि आज मनोदोष बहुत बढ़ गया है, विषम हो गया है। राग और द्वेष में वैषम्य है। कहीं राग अधिक है तो कहीं द्वेष अधिक है। कहीं रोग से पैदा होने वाले विकार अधिक हैं, कहीं द्वेष से उत्पन्न होने वाले विकार अधिक हैं। वैषम्य मानसिक विकार, मानसिक भय और मानसिक रोगों को पैदा कर रहा है। इस स्थिति में समीकरण आवश्यक है। यह ध्यान के द्वारा संभव है। हम उपर्युक्त उपायों के द्वारा राग और द्वेष का साम्य करें, जिससे हमारा आरोग्य बढ़े। कम से कम हमें मानसिक आरोग्य तो प्राप्त हो, वीतरागता की प्राप्ति हो या न हो। वीतरागता की बात को हम एक बार छोड़ दें। आज साधक को जीवन चलाना है, समाज और राष्ट्र का संचालन करना है। उसका स्वयं के प्रति, समाज और राष्ट्र के प्रति मोह है। इस स्थिति में वीतरागता की बात प्राप्त नहीं होती। यह भी सत्य है कि यहां साधना के लिए आने वाले वीतराग बनने के लिए नहीं आए हैं। यद्यपि अंतिम लक्ष्य यही है। पर अभी हम प्रारम्भ से चल रहे हैं। यदि प्रेक्षाध्यान शिविर में आने वाले सभी सदस्य वीतराग बनने के लिए आते हैं तो गड़बड़ी पैदा हो जाएगी। समाज की पूरी व्यवस्था लड़खड़ा जाएगी। अपने बच्चे-बच्चियों को ध्यान शिविर में भेजने वाले माता-पिता सोचेंगे कि भेजें या न भेजें ! यदि वहां से वीतराग बनकर लौटेंगे तो हमारे किसी काम के नहीं रहेंगे। न पति काम का रहेगा, न पत्नी और न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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