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हृदय परिवर्तन के सूत्र (१)
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निर्माण में जुट गया। एक आदमी निकम्मा बैठा है। दूसरे लोग पहुंचे। उन्होंने कहा-'तुम्हें पता नहीं मन्दिर बन रहा है और सबको काम करना है! चलो, मन्दिर के काम में लगें।' वह बोला-'क्या करूं, सबके पेट भरे हैं पर मेरा पेट खाली है, मैं कैसे काम कर सकता हूं। भला, खाली पेट वाला आदमी कैसे काम करेगा ? कैसे अपनी शक्ति लगायेगा ? पेट खाली है।' लोगों ने कहा-बेचारा ठीक कहता है, पेट खाली है तो काम कैसे करेगा ? श्रमिक का तो और ज्यादा खाने को चाहिये। उसे पेट भरकर रोटियां खिला दी। उसने डटकर रोटियां खा ली। तब फिर कहा गया-चलो, काम में चलें। वह बोला-मैं कैसे जा सकता हूं! मैं तो अब काम नहीं कर सकता। पेट इतना भर गया कि काम करने की स्थिति में नहीं हूं।
पेट खाली है तो भी काम करने की स्थिति में नहीं है, पेट भर गया तो भी काम करने की स्थिति में नहीं है। आदमी बहाना खोज सकता है। दोनों ओर हमारे बहाने हैं। दायें भी बहाना है, बायें भी बहाना है। आगे भी बहाना है और पीछे भी बहाना है। बहाना खोजा जा सकता है। पर जो व्यक्ति विकास की अवस्था में जाना चाहता है वह बहानेबाजी नहीं करता, वह प्रयत्न करता है। ऐसे कम लोग होते हैं जो प्रयत्न करते हैं। गीता का एक बहुत सुन्दर वाक्य है-'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद् यतति सिद्धये-हजारों मनुष्यों में कोई एक ऐसा निकलता है जो सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है। आप यह न मानें कि सिद्धि दुर्लभ होती है। हर आदमी सिद्धि को पा सकता है। हमारे सामने साध्य है, साधन है, तो सिद्धि हो सकती है। साध्य, साधन और सिद्धि-यह त्रिवेणी जुड़ी हुई है। इसको अलग नहीं किया जा सकता। जिस आदमी ने कोई साध्य बना लिया, ठीक साधन चुन लिया तो सिद्धि अवश्य मिलेगी। सिद्धि के लिए ज्यादा चिन्ता की जरूरत नहीं होती। चिन्ता करने की जरूरत होती है साध्य और साधन की। सिद्धि तो परिणाम है। वह तो अपने आप होने वाला है। हम परिणाम के लिए सोचते हैं, यह हमारी समझदारी नहीं है। हमें परिणाम की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। अभी-अभी एक भाई मेरे पास आया। आकर बोला कि अमुक बीमारी है। क्या ध्यान करने से लाभ हो सकता है ? बहुत बार यह प्रश्न आता है। मैं मन ही मन सोचता हूं और कभी-कभी कहता भी हूं कि यह शिविर-स्थल कोई चिकित्सालय तो नहीं है, हॉस्पिटल तो नहीं है, पर मानता हूं कि जो बीमारियां हैं वे यहां ठीक हो सकती हैं। मन ठीक है तो बीमारी भी ठीक होने लग जाती है, हो भी जाती है, और हो ही जाती है। तीनों स्थितियां बनती हैं। सबसे पहली बात है कि मन ठीक कैसे बने ? हमारी आन्तरिक स्थिति कैसे बदले ? अगर
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