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खोजने का प्रयास करें। उनकी निराशा मिट जाएगी। यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि जिस व्यक्ति ने भीतर में समाधान खोजना प्रारम्भ कर दिया उसकी कोई समस्या ऐसी नहीं होगी जिसका समाधान न हो सके। जो केवल बाहर ही बाहर समाधान खोजते हैं, उनकी सारी समस्याएं समाहित हो
परिवेश का प्रभाव और हृदय
- परिवर्तन
यह कभी संभव नहीं है । हमें बाहर की दुनिया से भीतर की दुनिया में प्रवेश करना होगा । हमें समाधान खोजना होगा, विद्युत् के संदर्भ में और रसायनों के संदर्भ में । हमारी प्राण- विद्युत् और अन्त: स्रावी ग्रन्थियों से स्रवित रसायनों में ही हमारे समाधान निहित हैं ।
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जो प्रेक्षा- ध्यान का अभ्यास करते हैं उनका यह सूत्र बन जाना चाहिए, यह दृष्टिकोण बन जाना चाहिए कि वे समस्या का समाधान बाहरी वातावरण में ही नहीं खोजेंगे, भीतर भी उसकी खोज करेंगे, फिर वह समस्या चाहे व्यवहार या आचरण की हो, प्रकृति या स्वभाव की हो । यदि यह दृष्टिकोण निर्मित हो जाता है तो समाधान का पहला सूत्र हस्तगत हो जाता है। वह आदमी मिथ्यादृष्टि वाला होता है जो बाहर ही बाहर समाधान खोजता है । वह आदमी सम्यकदृष्टि वाला होता है जो बाहर भी समाधान खोजता है और भीतर भी समाधान ढूंढता है। ध्यान साधना करने वालों की दिशा बदल जाती है । जो केवल बाहर में ही समाधान खोजने की दिशा थी, वह व्यापक बन जाती है, नई दिशा का उद्घाटन हो जाता है, नया आयाम उद्घाटित हो जाता है । वह अन्तर में प्रवेश करता है और समाधान ढूंढता है ।
जब भीतर भी समाधान प्राप्त न हो तो व्यक्ति को तीसरी स्टेज पर जाना होगा, वहां समाधान खोजना होगा । जब समाधान बाहर के वातावरण में भी नहीं मिला और अन्तर के वातावरण में भी नहीं मिला, रसायनों के वातावरण में भी नहीं मिला, तब मान लेना चाहिए कि बाहरी परिस्थितियों के परिवेश का भी प्रभाव नहीं है और रसायनों के परिवेश का भी प्रभाव नहीं है । वह प्रभाव है अन्तर्तम के परिवेश का । समाधान वहीं प्राप्त हो सकता है । तब समाधान उस सूक्ष्मतम जगत् में खोजना होगा ।
आयुर्वेद के आचार्यों ने कहा- रोग तीन प्रकार के होते हैं
१. बाहरी परिस्थिति के निमित्त से होने वाला रोग ।
२. वात, पित्त और कफ-शरीर के इन तीन दोषों के असंतुलन से होने वाला रोग ।
३. कर्मज रोग ।
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