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________________ परिवेश का प्रभाव और हृदय-परिवर्तन १२३ पडिसोयमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेणं ।। समूचा जगत् अनुस्रोतगामी है। सारे लोग अनुस्रोत में चलते हैं। साधक वह होता है जो प्रतिस्रोत में चले, प्रवाह के प्रतिकूल चले। जो व्यक्ति कुछ होना चाहता है उसे प्रतिस्रोतगामी होना ही पड़ेगा। हम प्रवाह के प्रतिकूल चलना सीखें । भाई, बेटा, मित्र या पड़ोसी, जिस प्रकार का व्यवहार करता है, उसी प्रकार का व्यवहार कर हम उस खाई को और अधिक लम्बा-चौड़ा कर सकते हैं, विरोध को उग्र कर सकते हैं। इससे कभी समाधान नहीं होगा। इसका समाधान पाना हो तो प्रतिक्रिया-विरति की साधना करनी होगी। प्रतिक्रिया से मुक्त होकर, क्रिया का सहारा लेना ही प्रतिस्रोत में बहना है। यही समाधान का एकमात्र मार्ग है। एक आदमी मोमबत्ती ढूंढ़ रहा था। नौकर आया। उसने पूछा-'मालिक! क्या कर रहे हैं ?' वह बोला- मोमबत्ती ढूंढ़ रहा हूं।' नौकर बोला-'मालिक! अंधेरा है, कैसे दीखेगी। बिजली जला लें तो मोमबत्ती ढूंढ़ने में सरलता होगी।' मालिक बोला-'मूर्ख हो तुम। यदि बिजली होती तो मोमबत्ती ढूंढता ही क्यों ? बिजली नहीं है इसीलिए तो मोमबत्ती ढूंढ रहा हूं।' आदमी बिजली जलाने के भ्रम में उलझ जाता है और मोमबत्ती को खोजने की बात को छोड़ देता है। यह सच है कि जब बिजली है तो मोमबत्ती क्यों ढूंढी जाए ? मूल बात है प्रकाश की खोज। आदमी की यह प्रकृति है उसे अंधेरा प्रिय लगता है। वह बाहर प्रकाश चाहता है, पर अन्तरंग में उसका अनुराग अन्धेरे से है। वह चाहता है क्षमा, पर क्रोध उसे अच्छा लगता है। जितना विश्वास हिंसा में है, उतना अहिंसा में नहीं। आदमी अहिंसा की बात को आगे रखता है, क्षमा और प्रकाश के सिद्धांतों को सामने रखता है पर आचरण करता है हिंसा का, क्रोध का और अंधकार का। वह उसका 'विभक्त-व्यक्तित्व' (डुएल-पर्सनेलिटी) है। सिद्धांत एक प्रकार का होता है और अन्तरंग में दूसरे प्रकार की आकांक्षा होती है। क्रोध के प्रति हमारी जितनी आस्था है, यदि वह क्षमा के प्रति होती तो हम क्षमावान् अधिक होते, क्रोधी कम। हिंसा के प्रति हमारी जितनी आस्था है, यदि वह अहिंसा के प्रति होती तो हम अहिंसक अधिक होते, हिंसक कम। हम अहिंसक कम हैं, हिंसक अधिक। क्षमावान् कम हैं, क्रोधी अधिक। इससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हमारी आस्था हिंसा में अधिक है अहिंसा में कम, हमारी आस्था क्रोध में अधिक है क्षमा में कम।। हम प्रकाश की बात करते हैं प्रकाश की खोज नहीं करते। प्रकाश की खोज करने वाले व्यक्ति को भीतर में डुबकियां लगानी पड़ेंगी। जो व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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