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________________ १२० कैसे सोचें ? इनसे प्रभावित होता है। व्यक्ति का आचरण बोलता है कि आदमी अभी किन-किन ग्रन्थियों से प्रभावित हो रहा है। इन रसायनों को जाने बिना व्यक्तित्व की यथार्थ व्याख्या नहीं हो सकती। व्यक्तित्व के पूरे विकास पर अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के रसायनों का बहुत प्रभाव होता है। जब हम इस तथ्य से अज्ञात रहते हैं तब अनेक विरोधी बातें कर जाते हैं। कभी बाहरी परिस्थिति पर सारा दोषारोपण कर देते हैं और कभी किसी व्यक्ति विशेष को उस घटना का उत्तरदायी बना देते हैं। कभी कुछ और कभी कुछ। एक आदमी जा रहा था। पास में एक बैल था। उस पर 'गोणी' रखी हुई थी। आदमी ने अपना सारा भार गोणी के एक ओर भर दिया। गोणी बैल की पीठ पर टिक नहीं पा रही थी, क्योंकि उसका संतुलन बिगड़ गया था। गोणी के दो पल्लों में समान भार डालने से ही संतुलन बना रह सकता है। भार को एक ही पल्ले में डाल देने के कारण न बैल चल पा रहा था और न ही भार टिक रहा था। आदमी ने भार को एक ही पल्ले में रखा और दूसरे पल्ले में हाथ डालकर शक्ति लगाई, जिससे भार और शक्ति में संतुलन हो जाए। कुछ दूर चला । हांफने लगा । सामने से एक पथिक आ रहा था। उसने कहा-'अरे मूर्ख ! यह क्या कर रहे हो ? तुम्हारा शरीर पसीने से लथपथ हो रहा है। तुम भी कष्ट पा रहे हो और बैल भी कष्ट पा रहा है। तुम वज्रमूर्ख हो।' उसने कहा-क्या करूं ? संतुलन कैसे बनाऊं ? पथिक बोला-आधा भार निकाल कर दूसरे पल्ले में डाल दो, संतुलन बन जाएगा। - उसने वैसा ही किया। संतुलन बना। शक्ति का अतिरिक्त व्यय रुक गया और उसका मार्ग भी सुख से कट गया। बहुत बार आदमी सारा भार एक पल्ले में डाल देता है, और संतुलन बनाए रखने के लिए जी-तोड़ प्रयत्न करता है, शक्ति का अपव्यय करता है। आदमी सारा भार परिस्थिति पर डाल कर मुक्त हो जाना चाहता है। दूसरे सारे निमित्त गौण हो जाते हैं, खाली रह जाते हैं। वह तब अपनी बात को सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क-वितर्क देता है, मस्तिष्क की शक्ति लगाता है, फिर भी संतुलन स्थापित नहीं कर पाता। कितना अच्छा हो कि आदमी दोनों पल्लों को संभाले, दोनों के संतुलन के लिए अपेक्षित भार डाले। वह एकान्तत: ऐसा न माने कि जैसी बाहर की परिस्थिति होती है, आदमी वैसा ही बन जाता है। यह एकांगी धारणा है। समग्र या यथार्थ अवधारणा यह होनी चाहिए कि बाहरी परिस्थिति भी व्यक्ति को प्रभावित करती है और अन्तर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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