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________________ कैसे सोचें ? पूरे व्यक्तित्व की व्याख्या करने के लिए हमें तीनों परिवेशों का अध्ययन करना होगा। इन तीनों के बिना आदमी के व्यक्तित्व, आचरण और व्यवहार की व्याख्या नहीं की जा सकती । ११८ सामाजिक, भौतिक और भौगोलिक वातावरण बाहरी परिवेश हैं । जिस प्रकार की सामाजिक, भौतिक और भौगोलिक परिस्थिति होती है, व्यक्तित्व वैसा ही बनता चला जाता है । आंतरिक परिवेश या वातावरण वह है जो शरीर के भीतर में काम कर रहा है । भीतर और बाहर, बाहर और भीतर के बीच में एक सीमा करता है, हमारा शरीर । इस शरीर की त्वचा से जो बाहर का संवेदन अनुभव होता है, जो बाहर का वस्तु जगत् है वह है बाहरी वातावरण और जो इस त्वचा के भीतर, त्वचा के संवेदन से लेकर संपूर्ण शरीर के भीतर होने वाला संवेदन है, वह है आंतरिक परिवेश या आंतरिक वातावरण । जो इस स्थूल शरीर की सीमा से परे, सूक्ष्म और सूक्ष्मतम शरीर का वातावरण है, वह है अन्तर्तम का वातावरण । जो आत्मवादी है, आत्मा और सूक्ष्म जगत् में आस्था रखता है, वह तीनों परिवेशों के सन्दर्भ में व्यक्तित्व की व्याख्या करेगा। जो नितांत भौतिकवादी है, सूक्ष्म जगत् में विश्वास नहीं करता उसे भी कम-से-कम बाहरी परिवेश और आंतरिक परिवेश, बाहरी वातावरण और शरीर के भीतर का वातावरण- इन दो परिवेशों में व्यक्तित्व की व्याख्या करनी पड़ेगी । अध्यात्म का सिद्धांत है - स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश, स्थूल से सूक्ष्म की ओर प्रस्थान | श्वास स्थूल है, सरलता से पकड़ा जा सकता है । प्राण सूक्ष्म है, पकड़ा नहीं जा सकता। हम दूध और दही को देख सकते हैं पर उसमें जो घी है उसको प्रत्यक्ष नहीं देख सकते । घी उसमें है यह हम जानते हैं । हम यह भी जानते हैं कि घी कहीं अलग से नहीं आ रहा है। वह दूध और दही से ही निष्पन्न होता है । दूध में घी है पर उसे पकड़ा नहीं जा सकता । दही में घी है पर उसे पकड़ा नहीं जा सकता। दूध और दही से घी को निकालने के लिए भिन्न प्रवृत्ति का, प्रक्रिया का प्रयोग करना होता है । इसी प्रकार श्वास के कण-कण में प्रवहमान प्राणधारा को पकड़ना भी प्रयोग - सापेक्ष है । श्वास बाहर आता है, भीतर जाता है क्यों ? वह अपने आप न भीतर जाता है और न अपने आप बाहर आता है। श्वास भीतर जाता है प्राणधारा के साथ और बाहर आता है प्राणधारा के साथ । श्वासनली विद्यमान है, बाहर वायु भी है, पर प्राण चला गया तो क्या श्वास भीतर जाएगा ? क्या श्वास बाहर आएगा ? नहीं। वह जहां है वहीं रह जाएगा। भीतर का भीतर और बाहर का बाहर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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