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जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा
भारतीय दर्शनों का वही चरम लक्ष्य है । लौकिक अभ्युदय धर्म का
आनुषंगिक फल है-धर्म के साथ अपने आप फलने वाला है । यह शाश्वतिक या चरम लक्ष्य है । इसी सिद्धांत को लेकर कई व्यक्ति भारतीय दर्शनों पर यह आक्षेप करते हैं कि उन्होंने लौकिक अभ्युदय की नितान्त उपेक्षा की, पर सही अर्थ में बात यह नहीं है । सामाजिक व्यक्ति अभ्युदय की उपेक्षा कर ही कैसे सकते हैं ? यह सच है कि भारतीय एकान्त भौतिकता से बहुत बचे हैं । उन्होंने प्रेय और श्रेय को एक नहीं माना । अभ्युदय को ही सब कुछ मानने वाले भौतिकवादियों ने युग को कितना जटिल बना दिया, इसे कौन अनुभव नहीं करता ?
मिश्रण नहीं होता
पुण्य और पाप के परमाणुओं के आकर्षण हेतु अलग-अलग हैं । एक ही हेतु से दोनों के परमाणुओं का आकर्षण नहीं होता | आत्मा के परिणाम या तो शुभ होते हैं या अशुभ, किन्तु शुभ और अशुभ दोनों एक साथ नहीं होते ।
कोरा पुण्य
कई आचार्य पाप कर्म का विकर्षण किए बिना ही पुण्य-कर्म का आकर्षण होना मानते हैं, किंतु यह चिन्तनीय है । प्रवृत्ति मात्र में आकर्षण और विकर्षण दोनों होते हैं । श्वेताम्बर आगमों में इसका पूर्ण समर्थन मिलता है ।
गौतम ने पूछा - 'भगवन् ! श्रमण को वंदन करने से क्या लाभ होता है ? '
भगवान् ने कहा - 'गौतम ! श्रमण को वंदन करने वाला नीच गौत्र - कर्म को खपाता है और उच्च गोत्र-कर्म का बन्ध करता है ।'
यहां एक शुभ प्रवृत्ति से पाप कर्म का क्षय बंध - इन दोनों कार्यों की निष्पत्ति मानी गयी है। यह मान्यता अधिक संगत लगती है ।
धर्म और पुण्य
जैन दर्शन में धर्म और पुण्य - ये दो पृथक् तत्त्व हैं। शाब्दिक दृष्टि से पुण्य शब्द धर्म के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, किंतु तत्त्व-मीमांसा
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और पुण्य कर्म का तर्क - दृष्टि से भी
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