________________
४४
जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा यद्यपि वह नहीं दीखता, फिर भी आकार और चेष्टाओं द्वारा जान लिया जाता है कि यह पुरुष पिशाच से अभिभूत है, वैसे ही शरीर के अंदर रहा हुआ जीव हास्य, नाच, सुख-दुःख, बोलना-चलना आदिआदि विविध चेष्टाओं द्वारा जाना जाता है।
१३. जीव के कर्म का परिणमन--
जैसे खाया हुआ भोजन अपने आप सात धातुओं के रूप में परिणत होता है, वैसे हो जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-योग्य पुद्गल अपने आप कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं।
जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध और उसका उपाय द्वारा विसम्बन्ध
जैसे सोने और मिट्टी का संयोग अनादि है, वैसे ही जीव और कम का संयोग (साहचर्य) भी अनादि है । जसे अग्नि आदि के द्वारा सोना मिट्टी से पृथक होता है, वैसे ही जीव संवर, तपस्या आदि उपायों के द्वारा कर्म से पृथक् हो जाता है।
१५. जीव और कर्म के सम्बन्ध में पौर्वापर्य नहीं
जैसे मुर्गी और अण्डे में पौर्वापर्य नहीं, वैसे ही जीव और कर्म में भी पौर्वापर्य नहीं है । दोनों अनादि-सहगत हैं। भारतीय दर्शन में आत्मा का स्वरूप
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा चैतन्य स्वरूप, परिणामी स्वरूप को अक्षुण्ण रखता हुआ विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होनेवाला, कर्ता और भोक्ता, स्वयं अपनी सत्-असत् प्रवृत्तियों से शुभअशुभ कर्मों का संचय करने वाला और उनका फल भोगने वाला, स्वदेह परिमाण, न अणु, न विभु(सर्वव्यापक) किन्तु मध्यम परिमाण का है।
बौद्ध अपने को अनात्मवादी कहते हैं। वे आत्मा के अस्तित्व को वस्तु सत्य नहीं, काल्पनिक-संज्ञा (नाम) मात्र कहते हैं। क्षणक्षण नष्ट और उत्पन्न होने वाले विज्ञान (चेतना) और रूप (भौतिक तत्त्व, काय) के संघात संसार-यात्रा के लिए काफी हैं। इनसे परे कोई नित्य आत्मा नहीं है। बौद्ध अनात्मावादी होते हुए भी कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष का स्वीकार करते हैं। आत्मा के विषय में प्रश्न पूछे जाने पर बौद्ध मौन रहे हैं। इसका कारण पूछने पर बुद्ध कहते हैं कि- “यदि मैं कहूं आत्मा है तो लोग शाश्वतवादी बन जाते हैं,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org