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आत्मवाद
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जैसे पृथ्वी सब द्रव्यों का आधार है, वैसे ही जीव ज्ञान आदि पुणों का आधार है।
७. जीव और आकाश की तुलना-नित्य की दष्टि से__ जैसे आकाश तीनों कालों में अक्षय, अनन्त और अतुल होता है, वैसे ही जीव भी तीनों कालों में अविनाशी-अवस्थित होता
८. जीव और सोने की तुलना-नित्य-अनित्य की दृष्टि से
जैसे सोने के मुकुट, कुण्डल आदि अनेक रूप बनते हैं, तब भी वह सोना ही रहता है, केवल नाम और रूप में अन्तर पड़ता है। ठीक उसी प्रकार चारों गतियों में भ्रमण करते हुए जीव की पर्याएं बदलती हैं-रूप और नाम बदलते हैं-जीव-द्रव्य बना का बना रहता है। _E. जीव की कर्मकार से तुलना-कर्तृत्व और भोक्तृत्व की दृष्टि से
जैसे कर्मकार कार्य करता है और उसका फल भोगता है, वैसे ही जीव स्वयं कर्म करता है और उसका फल भोगता है।
१०. जीव और सूर्य की तुलना-भवानुयायित्व की दृष्टि
से
जैसे दिन में सूर्य यहां प्रकाश करता है, तब दीखता है और रात को दूसरे क्षेत्रों में चला जाता है-प्रकाश करता है, तब दीखता नहीं, वैसे ही वर्तमान शरीर में रहता हुआ जीव उसे प्रकाशित करता है और उसे छोड़कर दूसरे शरीर में जा उसे प्रकाशित करने लग जाता
११. जीव का ज्ञान-गुण से ग्रहण
जैसे कमल, चंदन आदि की सुगन्ध का रूप नहीं दीखता, फिर भी घ्राण के द्वारा उसका ग्रहण होता है, वैसे जीव के नहीं दीखने पर भी उसका ज्ञान-गुण के द्वारा ग्रहण होता है।
___ भंभा, मृदंग आदि के शब्द सुने जाते हैं, किंतु उनका रूप नहीं दीखता, वैसे ही जीव नहीं दीखता, तब भी उसका ज्ञान-गुण के द्वारा ग्रहण होता है।
१२. जीव का चेष्टा-विशेष द्वारा ग्रहणजैसे किसी व्यक्ति के शरीर में पिशाच घुस जाता है, तब
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