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जीवन-निर्माण
जाति-स्मृति
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पूर्वजन्म की स्मृति ( जाति - स्मृति) 'मति' का ही एक विशेष प्रकार है । इससे पिछले नौ समनस्क जीवनों की घटनावलियां जानी सकती हैं । पूर्वजन्म में घटित घटना के समान घटना घटने पर वह पूर्व परिचित -सी लगती है । ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करने से चित्त की एकाग्रता और शुद्धि होने पर पूर्वजन्म की स्मृति उत्पन्न होती है । सब समनस्क जीवों को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं होती, इसकी कारण मीमांसा करते हुए आचार्य ने लिखा है"जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो । ते दुक्खेण संमूढो, जाइ सरइ न अप्पणी ||"
व्यक्ति 'मृत्यु' और 'जन्म' की वेदना से सम्मूढ़ हो जाता है; इसलिए साधारणतया उसे जाति की स्मृति नहीं होती ।
एक ही जीवन में दुःख - व्यग्रदशा ( सम्मोह - दशा) में स्मृति - भ्रंश हो जाता है, तब वैसी स्थिति में पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त हो जाए, उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं ।
पूर्वजन्म के स्मृति-साधन मस्तिष्क आदि नहीं होते, फिर भी आत्मा के दृढ़-संस्कार और ज्ञान-बल से उसकी स्मृति हो आती है । इसलिए ज्ञान दो प्रकार का बतलाया है - इस जन्म का ज्ञान और अगले जन्म का ज्ञान । अतीन्द्रियज्ञान-योगीज्ञान
अतीन्द्रिय ज्ञान इंद्रिय और मन दोनों से महत्त्वपूर्ण है । वह प्रत्यक्ष है, इसलिए पौदगलिक साधनों - शारीरिक अवयवों के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती । यह 'आत्ममात्रापेक्ष' होता है । हम जो त्वचा से छूते हैं, कानों से सुनते हैं, आंखों से देखते हैं, जीभ से चखते हैं, वह वास्तविक प्रत्यक्ष नहीं । हमारा ज्ञान शरीर के विभिन्न अवयवों से सम्बन्धित होता है, इसलिए उसकी नैश्चयिक सत्य [ निरपेक्ष सत्य ] तक पहुंच नहीं होती । उसका विषय केवल व्यावहारिक सत्य [ सापेक्ष सत्य ] होता है । उदाहरण के लिए स्पर्शन- इंद्रिय को लीजिए। हमारे शरीर का सामान्य तापमान ६७ या ६८ डिग्री होता है । उससे कम तापमान वाली वस्तु हमारे लिए ठंडी होगी। जिसका तापमान हमारी उष्मा से अधिक होगा, वह हमारे लिए गर्म होगी । हमारा यह ज्ञान स्वस्थिति-स्पर्शी होगा, वस्तु-स्थिति-स्पर्शी नहीं ।
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