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जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा
वनस्पति-शरीर भी नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर पुष्प, फल और त्वचा -विहीन हो जाता है और औषधि के संयोग से पुष्प, फलादि युक्त हो जाता है । अतः वनस्पति चेतनायुक्त है ।
वनस्पति के जीवों में अव्यक्त रूप से दस संज्ञाएं होती हैं | संज्ञा का अर्थ है - अनुभव । दस संज्ञाएं ये हैं- आहार - संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन - संज्ञा, परिग्रह - संज्ञा, क्रोध-संज्ञा, मान-संज्ञा, माया-संज्ञा, लोभ-संज्ञा, ओघ -संज्ञा एवं लोक-संज्ञा । इनको सिद्ध करने के लिए टीकाकारों ने उपयुक्त उदाहरण भी खोज निकाले हैं । वृक्ष जल का आहार तो करते ही हैं। इसके सिवाय 'अमर बेल' अपने आसपास होनेवाले वृक्षों का सार खींच लेती है | कई वृक्ष रक्त शोषक भी होते हैं । इसलिए वनस्पति में आहार-संज्ञा होती है । 'छुई-मुई' आदि स्पर्श के भय से सिकुड़ जाती है, इसलिए वनस्पति में भय-संज्ञा होती है । 'कुरूबक' नामक वृक्ष स्त्री के आलिगन से पल्लवित हो जाता है और 'अशोक' नामक वृक्ष स्त्री के पादाघात से प्रमुदित हो जाता है, इसलिए वनस्पति में मैथुन - संज्ञा
। लताएं अपने तंतुओं से वृक्ष को बींट लेती हैं, इसलिए वनस्पति में परिग्रह -संज्ञा है । 'कोकनद' (रक्तोत्पल) का कंद क्रोध से हुंकार करता है । 'सिदती' नाम की बेल मान से झरने लग जाती है । लताएं अपने फलों को माया से ढांक लेती हैं । बिल्ब और पलाश आदि वृक्ष लोभ से अपने मूल निधान पर फैलते हैं । इससे जाना जाता है कि वनस्पति में क्रोध, मान, माया और लोभ भी हैं । लताएं वृक्षों पर चढ़ने के लिए अपना मार्ग पहले से तय कर लेती हैं, इसलिए वनस्पति में ओघ - संज्ञा ' है । रात्रि में कमल सिकुड़ते हैं, इसलिए वनस्पति में लोक-संज्ञा ' है ।
वृक्षों में जलादि सींचते हैं, वह फलादि के रस के रूप में परिणत हो जाता है, इसलिए वनस्पति में उच्छ्वास का सद्भाव है । स्नायविक धड़कनों के बिना रस का प्रसार नहीं हो सकता । जैसे मनुष्य शरीर में उच्छ्वास से रक्त का प्रसार होता है और मृत शरीर में उच्छ्वास नहीं होता, अतः रक्त का प्रसार भी नहीं होता, इसलिए वनस्पति में उच्छ्वास है । इस प्रकार अनेक युक्तियों से वनस्पति
१. ओघ - संज्ञा - अनुकरण की प्रवृत्ति ।
२. लोक-संज्ञा - व्यक्त चेतना का विशेष उपयोग ।
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