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विश्व : विकास और हास
शरीरों के पिंड हैं । इनके एक जीव का एक शरीर अति सूक्ष्म होता है, इसलिए वह दृष्टि का विषय नहीं बनता । हम इनके पिण्डीभूत असंख्य शरीरों को ही देख सकते हैं।
५. वनस्पति का चैतन्य पूर्ववर्ती निकायों से स्पष्ट है । इसे जैनेतर दार्शनिक भी सजीव मानते आए हैं और वैज्ञानिक जगत् में भी इसके चैतन्य संबंधी विविध परीक्षण हुए हैं | बेतार की तरंगों ( wireless waves) के बारे में अन्वेषण करते समय जगदीशचंद्र वसु को यह अनुभव हुआ कि धातुओं के परमाणु पर भी अधिक दबाव पड़ने से रुकावट आती है और उन्हें फिर उत्तेजित करने पर वह दूर हो जाती है । उन्होंने सूक्ष्म छानबीन के बाद बताया कि धान्य आदि पदार्थ भी थकते हैं, चंचल होते हैं, विष से मुरझाते हैं, नशे में मस्त होते हैं और मरते हैं । अन्त में उन्होंने यह प्रमाणित किया कि संसार के सभी पदार्थ सचेतन हैं ।
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वेदान्त की भाषा में सभी पदार्थों में एक ही चेतन प्रवाहित हो रहा है ।
जैन की भाषा में समूचा संसार अनन्त जीवों से व्याप्त है । एक अणुमात्र प्रदेश भी जीवों से खाली नहीं है ।
वनस्पति की सचेतनता सिद्ध करते हुए उसकी मनुष्य के साथ तुलना की गई है ।
जैसे मनुष्य - शरीर जाति - (जन्म) धर्मक है, वैसे वनस्पति भी जाति-धर्मक है । जैसे मनुष्य-शरीर बालक, युवक तथा वृद्ध अवस्था प्राप्त करता है, वैसे वनस्पति शरीर भी । जैसे मनुष्य सचेतन है, वैसे वनस्पति भी । जैसे मनुष्य शरीर छेदन करने से मलिन हो जाता है, वैसे वनस्पति का शरीर भी । जैसे मनुष्य शरीर आहार करने वाला है, वैसे ही वनस्पति शरीर भी । जैसे मनुष्य शरीर अनित्य है, वैसे वनस्पति का शरीर भी । जैसे मनुष्य का शरीर अशाश्वत है ( प्रतिक्षण मरता है), वैसे वनस्पति के शरीर की भी प्रतिक्षण मृत्यु होती है । जैसे मनुष्य - शरीर में इष्ट और अनिष्ट आहार की प्राप्ति से वृद्धि और हानि होती है, वैसे ही वनस्पति के शरीर में भी । जैसे मनुष्य शरीर विविध परिणमन-युक्त है अर्थात रोगों के सम्पर्क से पाण्डुत्व, वृद्धि, सूजन, कृशता, छिद्र आदि युक्त हो जाता है और औषधि सेवन से क्रान्ति, बल, पुष्टि आदि युक्त हो जाता है वैसे
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