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________________ मानसिक शान्ति के मूलसूत्र ५६ अपमान को भूल जाओ मान लो, किसी व्यक्ति ने अज्ञानतावश तुम्हारा अपमान कर दिया या तुम्हारी भावना को आघात पहुँचाया, तो उसके प्रति तुम्हें अपने हृदय में द्वष, दुर्भाव, क्रोध या अनिष्ट करने का विचार नहीं लाना चाहिए । दुर्भाव या द्वेषभाव का सेवन करना एक प्रकार का मानसिक कैंसर है। इस प्रकार की संतापवृद्धि करने की आदत व्यक्ति के अपने लिए भी हानिकारक है । ऐसा करने से उस व्यक्ति की नींद हराम हो जाएगी, रक्त जहर बन जाएगा । रक्तचाप भी बढ़ जाना सम्भव है। किसी के द्वारा किये गए अपमान को अगर बार-बार याद किया जाएगा तो उससे मन में दुष्ट विचार आएँगे, हृदय में जलन होगी, इसकी अपेक्षा उस अपमान का कड़वा चूंट पी जाने से अपमानित करने वाले व्यक्ति पर भी उसका असर होगा, मन को भी शान्ति मिलेगी। लौकिक लोगों से प्रशंसा या प्रतिष्ठा की अपेक्षा न रखो जो व्यक्ति दुनियादार लोगों से अपने कार्य की या अपनी प्रशंसा या सार्वजनिक सम्मान-प्रतिष्ठा चाहता है, वह अपने लिए मानसिक अशान्ति और शारीरिक अस्वस्थता का सृजन करता है। जब प्रशंसा या सम्मान मिलेगा, तभी वह काम करेगा, अन्यथा, सत्कार्य को छोड़ बैठेगा । अथवा मन में घुटता रहेगा कि मैं इतना अच्छा कार्य करता हूँ, फिर भी मेरी कोई प्रशंसा या कद्र नहीं करता है। दुनियादार लोगों में अधिकांश अज्ञानी एवं चापलूस होते हैं, उनके द्वारा किये गए गुणगान का मूल्य इतना क्यों आंका जाए ? परमात्मा एव चारित्रशील महात्माओं के आशीर्वाद एवं कृपाप्रसाद प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। धर्मशास्त्रों के उपदेशों तथा सदाचार के नियमों एवं साधु-सन्तों तथा पवित्र पुरुषों के मत को ही महत्त्व देना चाहिए। श्रेय-प्रेय का विवेक करना सीखो जो व्यक्ति मानसिक शान्ति चाहता है, उसे प्रत्येक अवसर पर अच्छेबुरे, सत्-असत् या श्रेय-प्रेय का विवेक करना सीखना चाहिए । सन्मार्ग का निर्णय करने के लिए आत्म निरीक्षण की आवश्यकता है। अर्थात्-उसे आत्माभिमुख होना चाहिए। जो अन्तर की गहराई में उतर कर आत्म विकास की दृष्टि से खोज करेगा, वह अवश्य ही आनन्द पाएगा । वह अपने अन्तर् में विवेक का गज डालकर श्रेय (कल्याणकारी मार्ग) और प्रेय दोनो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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