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________________ तमसो मा ज्योतिर्गमय आत्मिक प्रगति के मार्ग में सबसे अधिक बाधक हैं, इन्हें हटाने को आत्मपरिशोधन कहते हैं । निष्कर्ष यह है कि आत्मिक प्रगति की साधना का पूर्वार्ध आत्म-परिशोधन है और उत्तरार्ध है साधना द्वारा आत्मविकास । उत्तरार्ध से लाभ पाने की आशा में पूर्वार्ध की उपेक्षा करना साधक को बहुत ही मँहगा पड़ता है । ऐसी छलांग मारने वाला पूर्ण असफल न भी हो तो भी उसका प्रतिफल इतना अल्प दिखाई देता है, जो प्रारम्भ में सोचे या बताये गये लाभ की तुलना में बहुत ही कम होता है, साधक के मन को वह उदास कर देता है । अधिकांश साधक आत्मा के अभिवर्धन से पूर्व परिशोधन के सिद्धांत की उपेक्षा करके असमंजस एवं निराशा की स्थिति में पहुँच जाते हैं । आसानी से शीघ्र उपार्जन के लोभ में ऐसी आतुरता अपनाई जाती है, जिसके आवेश में परिशोधन ( तप द्वारा वर्तमान एवं भावी जीवन को पवित्रपरिस्कृत करने तथा प्रायश्चित्त तप द्वारा पूर्वकृत पापों दुष्कृतों का परिमाc) नहीं किया जाता। ऐसे एकांगी अधूरे प्रयासों से आत्मिक अभिवर्धन में असफलता मिलती है । यह भयंकर भूल है कि आत्म-परिशोधन जैसी प्रारम्भिक प्रक्रिया को अपनाए बिना ही आगे की छलांग लगा दी गई । परिशोधन की उपेक्षा करके उपार्जन की उतावली अन्ततः निराशाजनक ही सिद्ध होती है । अतः आत्म-साधना की सनातन परम्परा में आत्मशोधन की सर्वप्रथम आवश्यकता और महत्ता है । परिशोधन को ही तपःसाधना कहते हैं जिसके अनेकों प्रकार हम संक्षेप में बता आए हैं। उन्हें आत्मसाधना से पूर्व अपनाने से मनोभूमि की कुसंस्कारिता हटती है, उर्वरता उत्पन्न होती है तथा अवांछनीय आदतें और गलत मान्यताओं के कारण अन्तःक्षेत्र में जमी हुई दुष्ट मनोवृत्तियाँ भी दूर हो जाती हैं । बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार की तप:साधना से तन, मन, इन्द्रिय, बुद्धि एवं आत्मा पर लगे हुए दोष, रागद्वेषादिजनित कर्म नष्ट होते हैं और इस प्रकार की आत्मशुद्धि होने से आत्मिक विकास होने में देर नहीं लगती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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