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________________ सर्वतोमुखी आत्मविकास का उपाय : तप ४५ ऐसे अध्यात्म मार्ग के पथिकों को धर्मस्थापना एवं अधर्म का विरोध करने में आजीवन संघर्ष करना पड़ता है, अन्याय-अनीतिकर्ताओं एवं अधामिकों का विरोध और आघात एवं आक्रमण भी सहना पड़ता है। धर्म एवं नीति के समर्थकों को पद-पद पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन्हें अल्पतम साधनों से अपना निर्वाह करना पड़ता है, कभी-कभी कई दिनों तक भूखे-प्यासे भी रहना पड़ता है, योग्य आवास स्थान न मिलने से सर्दी-गर्मी का भी अनुभव करना पड़ता है। अतः आवश्यक है कि वे पहले से ही बाह्य आभ्यन्तर तपःसाधना द्वारा अपनी सहनशक्ति, धैर्य एवं साहस विकसित करें। अपनी मनःस्थिति एवं शारीरिक क्षमता ऐसी बना लें, जिससे बाद में उन्हें पछताने या किसी को कोसने की आवश्यकता ही न पड़े । तपश्चर्या से इसी आवश्यकता की पूर्ति होती है । ऐसा साधक यथालाभ सन्तोष की नीति अपनाकर प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न रह सकता है। तप का फलितार्थ आत्मा के विकारों को जलाना और सामर्थ्य बढ़ाना तप का अर्थ तपाना है । आध्यात्मिक दृष्टि से यहाँ तप का विशेषार्थ होगा-तन, मन, इन्द्रिय और आत्मा को तपाना । ताप गर्मी को कहते हैं। गर्मी आग है । आग से दो काम होते हैं - (१) जलाना, नष्ट करना या शुद्ध करना और (२) शक्ति सामर्थ्य को असंख्यगुना बढ़ा देना । तपाने से वस्तुएँ गर्म होती हैं, उससे उनमें छिपी शक्तियाँ उभरती हैं, उनका संशोधन होता है, स्तर बढ़ता है, तथा उनमें दृढ़ता आती है। वस्तुओं की तरह व्यक्ति भी तपःसाधना से परिष्कृत, सुदृढ़ एवं प्रबल होता है। तपश्चर्या से आत्मा में प्रचण्ड प्रखरता उत्पन्न होती है।। भौतिक जगत् में भी इसी तथ्य का अवलम्बन लिया जाता है । धातुओं में मिली हुई विकृतियाँ उन्हें भट्टी में डालने से जल कर नष्ट हो जाती हैं। कड़े-कचरे को आग में डाल कर लोग उसकी दुर्गन्ध एवं सड़ान से छुटकारा पा जाते हैं । गर्म पानी में खोला कर लोग कपड़े का मैल छुड़ाते हैं । ठंडी बारुद को विस्फोटक बनाने का काम चिनगारी करती है, पानी को तपा कर उसकी भाप से रेलगाड़ी जैसे भारी वाहन को इंजिन द्र तगति से घसीटता चला जाता है। आग ही तेल को शक्ति में परिणत करने का काम करती है जिससे मोटरों और जहाजों को चलाया जाता है। बल्ब का जरासा फिलामेंट गर्म होने पर प्रकाश देता है । अणु से निकलने वाले विकिरण भी अग्निमय होते हैं । तेजस् शरीर को जीवित (गर्म) रखने और अवयवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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