________________
आत्मा का उत्थान एवं पतन : अपने हाथों में ३३ कर प्रतीत होते हैं । व्यभिचारी, चोर, लम्पट, झूठे, ठग, पागल, अन्यायी, अत्याचारी एवं बेईमान को भी अपनी-अपनी दुनिया अलग ही दिखाई देती है। इसके विपरीत साधु-सन्त, ज्ञानी-ध्यानी, उत्साही, साहसी, धर्मवीर, सेवाभावी, परोपकारी, आत्मविश्वासी एवं महात्मा को जगत् अपने ही रूप में अलग दिखाई देता है।
निष्कर्ष यह है कि मनुष्य अपनी मनःस्थिति को या दृष्टि को ठीक कर ले तो उसे कोई भी परिस्थिति या संसार की कोई भी सजीव-निर्जीव वस्तु प्रतिकूल नहीं लगती। प्रतिकूल परिस्थिति या व्यक्ति को अपने लिए अनुकूल रूप में परिणत कर लेता है। तटस्थ दृष्टि से वस्तु स्वरूप पर विचार करके वह सभी में से गुण-ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार अपनी आत्मा का उत्थान या उद्धार प्रतिकूल परिस्थिति या व्यक्ति होने पर भी मनःस्थिति या दृष्टि तद्नुकूल बनाकर उसी में से अपना हित या कल्याण कर लेता है। स्वयं को सुधारो : परिस्थिति सुधरेगी
हर व्यक्ति को सुधारना या इच्छानुकूल बनाना कठिन है। हर परिस्थिति हमारी इच्छानुरूप बनी रहे, यह असम्भव है। इस प्रकार के प्रयास करने में कितना ही श्रम और समय क्यों न लगाया जाए अपने को पूर्ण सन्तोष दे सकने योग्य परिस्थिति उत्पन्न न हो सकेगी । न ही किसी व्यक्ति को अपनी मन मर्जी पर चलाया जा सकता है । कोई अपना कहना न माने तो उसे विवश कैसे किया जा सकता है ? किसी के शरीर पर तो बन्धन शासक द्वारा लगाया जा सकता है, परन्तु किसी के मन पर दूसरे का बलात प्रतिबन्थ चलना कठिन है। हाँ, अपने शरीर और मन पर अनुशासन और नियन्त्रण हो ही सकता है । कम से कम अपने तन-मन को अवांछनीय मार्ग से विरत करना और सन्मार्ग पर चलाना सम्भव हो सकता है। अपने दुगुणों पर कड़ी दृष्टि रखी जाए और कड़ाई बरती जाए तो वे पराये घर में घुसे हुए चोर की तरह अधिक देर नहीं ठहर सकते। उन्हें भागना ही पड़ेगा । दुर्गुण विजातीय (विभाव या परभाव) तत्त्व हैं । मानवात्मा उनका अपना घर नहीं है । मानव-आत्मा तो एक दृष्टि से परमात्मा का आवासस्थान है। यहाँ आत्मिक गुणों का ही निवास हो सकता है । दुर्गुण या मनवचन-काया की दुष्प्रवृत्तियाँ (दुष्ट योग) अथवा उत्सूत्र, उन्मार्ग एवं मर्यादाविरुद्ध (अकल्पनीय), अकरणीय, दुनि, दुश्चिन्तन, अनाचार एवं अवांछ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org