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अध्यात्म-साधना के विविध पहलू १५ चाहते, उनके लिए अध्यात्म साधना कठिन है, किन्तु जिनको रुचि, श्रद्धा एवं जिज्ञासा इसके प्रति है, उनके लिए यह साधना कठिन नहीं होती। साधना के मार्ग पर चलने वाला मुमुक्षु अपनी अन्तःक्षेत्रीय श्रद्धा को विक सित करता है। अपने चिन्तन-प्रवाह को लक्ष्य की दिशा में नियोजित करता है, सात्त्विक और सुसंस्कृत जीवन के नियमोपनियमों का तत्परतापूर्वक पालन करता है। अपनी आदतों, प्रवृत्तियों तथा प्रकृति को नियन्त्रित करता है । इन सबकी मिली-जुली प्रतिक्रिया साधक के व्यक्तित्व पर पड़ती है । सच्चा साधक किसी प्रकार की लौकिक फलाकांक्षा, स्वार्थ की सौदेबाजी या निदान (वैषयिक वांछा) साधना के साथ नहीं जोड़ता। वह बार-बार साधना के परिणाम की ओर नहीं ताकता । न ही धैर्य खोकर वह साधना को अधबीच में अधूरी छोड़कर भागता है। वह लक्ष्यसिद्धि होने तक सतत साधना में लगा रहता है । यही दृढ़निष्ठा दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों को स्वभाव का अंग बनाने में सहायक सिद्ध होती है। योगदर्शन की भाष। में कहूँ तो साधना तभी सुदृढ़ बनती है, जब वह 'स तु दीर्घतर-नरंतर्यसत्कारासेवितो दृढ़भूमिः' अर्थात्-दीर्घकाल तक, निरन्तर, सत्कारपूर्वक उसका सेवन करता है। किसान से साधना सीखें!
यह तो हुई आध्यात्मिक क्षेत्र में साधना की बात । साधना भौतिक क्षेत्र में भी होती है । उदाहरणार्थ-एक किसान है। वह अन्न-उत्पादन की साधना करता है। पूरे वर्ष वह खेत की मिट्टी के साथ अनवरत गति ' लिपटा रहता है। फसल को वह अपने स्वेद कणों से सींचता रहता है। वह सर्दी-गर्मी की या जुकाम-खांसी आदि की चिन्ता नहीं करता । शरीर की तरह खेत ही उसका कार्यक्षेत्र होता है । एक-एक पौधे पर उसकी नजर रहती है । खाद, पानी, निराई, गुड़ाई, कटाई, पैराई आदि से लेकर रखवाली तक के अनेकों कार्य वह अपनी इच्छा और प्रेरणा से करता है, किसी के दवाब से नहीं । खेती में कब, क्या, कैसे किया जाना चाहिए? किस बात की कब आवश्यकता है ? यह सव वह अपनी सूझ-बूझ और गतिविधि के अनुसार निर्णय करता है, किसी के निर्देश या भय से नहीं। उसे अपने खेत की, उसे संभालने वाले वेलों की, हल, कुदाल आदि सम्बद्ध उपकरणों और साधनों की व्यवस्था जुटाए रखने की सूझबूझ सहज ही उठतो है और स्वयं स्फुरित रूप से गतिशील होती रहती है । वह यह सब करता है, बिना थके, बिना ऊबे और बिना अधोर हुए । आज का किया हुआ श्रम कल ही फलित होना चाहिए,
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