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________________ २३० तमसो मा ज्योतिर्गमय एक जगह मैंने सुना कि एक प्रसूता बहन को प्यास लगी, उसने एक श्राविका बहन से पीने के लिए पानी माँगा, पर उसने इसलिए उसे पानी नहीं पिलाया कि प्रसूता की सेवा करने से तेले का दण्ड आता है । पता नहीं, यह तेले के दण्ड का आविष्कार किसने और कहाँ से निकाला ? मूलशास्त्रों में तो ऐसा कहीं विधान नहीं है, बल्कि प्रसूता की सेवा और उस पर दया करना मानवीय कर्तव्य है। सुदूर अमेरिका से यहाँ आकर मिशनरी लोग हमारे देशवासियों की सेवा करें, उन पर दया करें और हम अपने भाईबहनों की सेवा के बदले तिरस्कार करें, यह कितनी नासमझी है। अहिंसा का क्रम न समझने के कारण कई मनुष्य छोटे-छोटे जीवों को तो बचाने की कोशिश करें और बड़े जीवों-पशुओं और मनुष्यों के प्राण जाते हों या वे मुसीबत में हों, उस समय यह बहाना बनाकर कुछ भी न करें कि प्रसूता की सेवा से हिंसा होती है, क्योंकि पानी आदि सब में जीव है, उसके लिए भोजन बनाने में भी आरम्भ होता है । इसलिए क्यों 'अंधे को न्यौता दें और दो को जिमाएँ' वाली कहावत चरितार्थ करें। उसकी सेवा करने में एकेन्द्रियादि जोवों की हिंसा होगी। पर वे यह नहीं समझते कि प्रसूता के प्राण बचाए, दो जीवों पर दया की, इसमें कितना महालाभ हुआ ? सूक्ष्म जीवों की रक्षा की ओट में अपने कर्तव्य के प्रति उदासीनता दिखाना, कहाँ तक उचित है । दुनिया में ऐसा कोई कार्य नहीं, जिसमें थोड़ी-बहुत हिंसा न होती हो और कर्मबन्ध न होता हो। किन्तु प्रत्येक कार्य को विवेक, यतना और ज्ञानपूर्वक करने से पापबन्ध कम होता है, जबकि अज्ञान एवं अविवेक से कार्य करने से भयंकर पापबन्ध होता है। कई लोग यह सोचते होंगे कि रोटी बनाने वाली बहन पापकर्म से नहीं बच सकती, मैं कहता हैं, अगर वह विवेक और यतना के साथ रसोई बनाती है । रसोई बनाना परिवार की सेवा का एक अंग समझती है, कर्तव्य मानती है। वह ऐसा विचार करती है कि मैं जो स्वास्थ्यवर्द्धक रसोई बनाती हैं उससे सारे परिवारीजनों को तो स्वास्थ्य एवं शांति का लाभ मिलेगा ही, किसी साधु-साध्वी के पात्र में भी पड़ेगा, या किसी भूखे या अतिथि को दान देने का लाभ भी होगा। इसलिए वह यतनापूर्वक लकड़ी, पानी, कडे, चूल्हा आदि को साफ करती हुई, जीवों को बचाती हुई रसोई बनाती है, तो आरम्भ के पाप से अधिक मात्रा में बचकर पुण्य प्रकृति का बंध कर सकती है। परन्तु जो अपने को मजदूरिन समझकर बेगार समझ. कर लापरवाही से रसोई बनाती है, वह आरम्भजन्य पाप में अत्यधिक पाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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