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________________ २२२ तमसो मा ज्योतिर्गमय वाले इस जनसंहार को रोक दें ।" भरत इस बात से सहमत हो गए। इस विचार से दोनों भाई युद्ध क्षेत्र में उतर आए और जैसा कि इतिहासकार कहते हैं - उन्होंने पहले दृष्टियुद्ध किया, फिर मुष्टियुद्ध | इस लड़ाई की खूबी यह थी कि खून की बूंद भी बहाए बिना, मरे-मारे बिना इस अहिंसक युद्ध से ही सिर्फ जय-पराजय का निर्णय करना था । मतलब यह है कि कराने में द्रव्य, क्षेत्र और काल की कोई सीमा नहीं थी, विराट हिंसा समाई हुई थी, उसे स्वयं करने में सीमित द्रव्य-क्षेत्र काल में ही अल्पतम कर दी गई। वर्तमान संसार के इतिहास में यह सर्वप्रथम अहिंसक संग्राम था । अब आइए, रामयुग की ओर । जैन संस्कृति की उज्ज्वल गुणगाथाएं जैन रामायणों में उपलब्ध होती है । भगवान महावीर के ५०० वर्ष बाद प्राकृत भाषा में जो विमल रामायण लिखी गई है, उसमें बाली और रावण के परस्पर अहिंसक युद्ध का कुशलतापूर्वक सुन्दर चित्रण किया गया है । घटना यों है- बाली को अपने अधीन बनाने और सेवक के रूप में रखने के लिए रावण विशाल सेना लेकर किष्किन्धा पर चढ़ आता है, उधर बाली भी अपनी सेना को शस्त्रास्त्र से सुसज्जित करके रणांगण में युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश देता है । दोनों ओर के सेनापति इस प्रतीक्षा में थे कि कब युद्ध का शंख बजे और कब हमारी तलवारें चमकें | सर्वप्रथम बाली रणभूमि में आया। दोनों ओर की सेनाएँ देखकर उसके मन में एक सुन्दर विचार स्फुटित हुआ - " हार-जीत का सवाल तो मेरा और रावण का है । रावण की और मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है | फिर इन दोनों जातियों को लड़ाने और संहार कराने से क्या लाभ ? लाखों मनुष्यों का खून रणचण्डी के खप्पर में डाल कर भी निर्णय तो हम दोनों के लिए ही करना है | अतः हम दोनों ही आपस में क्यों नहीं फैसला कर लें ।" बाली ने अपना विचारपूर्ण सन्देश रावण के पास भेजा - " यह सारा संघर्ष तो तुम्हारा और मेरा है । हम दोनों की लड़ाई में प्रजा क्यों जिम्मेवार मानी जाए अकारण ही प्रजा को लड़ाने से तो यही बेहतर है कि हम दोनों ही आपस में लड़कर शक्ति परीक्षण कर लें और उसी के आधार पर हार-जीत का फैसला कर लें ।" बाली की बात रावण ने स्वीकार कर ली । दोनों पक्ष की सेनाएँ तटस्थ दर्शक की तरह खड़ी रहीं और रावण एवं बाली दोनों ने परस्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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