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हिंसा के स्रोत और उनमें तारतम्य २२१ विदेशी वस्त्र यहां नहीं बनते, लेकिन कोई यहाँ बैठे हुए ही सुनकर मा विज्ञापन पढ़कर हजारों मील दूर मैनचेस्टर और लंकाशायर की मिलों के बने कपड़ों की प्रशंसा करके अनुमोदन करता है, तो इस तरह सिद्ध हो जाता है करने-कराने की अपेक्षा अनुमोदन का क्षेत्र बड़ा है।
करने की अपेक्षा, कराने का द्रव्य, क्षेत्र, काल कैसे अधिक खुला है, इसे जैन जगत् के इतिहास की एक चमकती हुई घटना द्वारा देखिए
जैन इतिहास या जैन संस्कृति का पहला अध्याय युगादि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से प्रारम्भ होता है। भगवान ऋषभदेव के महाव्रती दीक्षा ले लेने के बाद भरत ने चक्रवर्ती बनने के सन्दर्भ में बाहुबली को अपने आधिपत्य के नीचे रखने के लिए प्रयत्न किया। मगर बाहबली ने जब किसी प्रकार से भरत की अधीनता स्वीकार न की तो दोनों में ठन गई और युद्ध का अवसर आ गया। दोनों की सेनाएँ विशाल रणक्षेत्र में आमने-सामने आ डटी । बस, रणभेरी बजने की देर थी। आचार्य जिनदास महत्तर के कथनानुसार वहाँ तत्क्षण बाहुबलि के मन में वैराग्य और करुणा का प्रवाह उमड़ पड़ता है । वह सोचता है-भरत चक्रवर्ती बनना चाहता है, मैं उसके मार्ग में बाधक हूँ। मैं स्वाभिमानवश उसकी अधीनता स्वीकार नहीं करता, क्योंकि वह अनूचित है। भाई के नाते मैं भरत की सेवा कर सकता हूँ, दास बन कर नहीं । अब यहाँ खास प्रश्न तो भरत का और मेरा है । क्यों नहीं, हम दोनों ही आपस में निपट लें, व्यर्थ ही इतनी सेना को कटवाने से क्या लाभ है ? व्यर्थ हो इतना रक्त बहाने से कोई लाभ नहीं है । युद्ध तो युद्ध है, इसमें दोनों ओर के हजारों-लाखों सैनिक कटमर कर समाप्त हो जाएंगे । इसके अलावा उनके पीछे रहे हुए परिवार को भी बहुत रोना-धोना पड़ेगा, सारी संस्कृति और सभ्यता मटियामेट हो जाएगी । अतः इस करुणा से प्रेरित होकर बाहुबलि ने भरत के पास सन्देश भेजा-“भैया ! लड़ाई तो आपकी और मेरी है। दोनों ओर की सेना की तो नहीं है। फिर व्यर्थ ही इतने सैनिकों को कटवाने और इतना रक्तपात कराने से क्या लाभ है ? अतः आओ, हम दोनों परस्पर शक्ति अजमाकर उसी पर से जय-पराजय का निर्णय कर लें और व्यर्थ में होने
१ आवश्यक चूणि में यह कथा दी गई है, जिसमें इन्द्र के आने का उल्लेख
नहीं है।
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