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________________ हिंसा के स्रोत और उनमें तारतम्य २११ ही क्षण नरकलोक की, यानी मन प्रतिपल आकाश-पाताल की उधेड़-बुन करता रहता है । मन की चंचल गति को नापना बहुत ही कठिन है, कविवर श्री बनारसीदास जी कहते हैं एक जीव की एक दिन, दसा होई जेतीक । सो कहि सके न केवली, यद्यपि जानं ठीक ॥ कोई कह सकता है कि जिन जीवों में मन नहीं हैं, वहाँ अध्यवसाय कैसे होते हैं ? जैनदर्शन कहता है, वहाँ बाहर से वे असंज्ञी–अमनस्क होते हुए भी उनके भावमन तो होता ही है । एकेन्द्रिय जीव, जिन्हें हम अमनस्क कहते हैं, वे भी सात या आठ कर्म समय-समय पर बाँधते हैं । सात कर्म तो नियम से बाँधते हैं । और कर्मबन्ध तभी होता है, जब आत्मा में योगों की हलचल से कम्पन उत्पन्न होता है । उन्हीं के साथ ही कषायों के संस्कार जागृत होंगे । इसीलिए एकेन्द्रिय जीव में भी हिंसा तब तक चालू रहती है, जब तक वे मन से हिंसा का त्याग नहीं कर देते । नीचे की भूमिकाओं में मन का प्रत्येक कम्पन हिंसा है । तात्पर्य यह है कि केन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी प्राणी हैं, और जब तक वे संसारी दशा में हैं, तब तक मन, वचन, काया के द्वारा समुद्र की लहरों की तरह कम्पन होता रहता है, हलचल मची रहती है । और जब कम्पनों की कोई गिनती नहीं तो हिंसा के भेदों की गणना कैसे हो सकती है । फिर भी आचार्यों ने स्थूल दृष्टि वाले जीवों के लिए हिंसा के कुछ स्थूल रूपों को समझाने का प्रयास किया है । हिंसा के तीन स्तर यह निश्चित हो गया कि हिंसा की आधारभूमि तीन योग हैं-मन, वचन और काया; तब हिंसा के स्तरों को समझ लेना आवश्यक है । सर्वप्रथम हिंसा के तीन स्तर हैं- संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ । सर्वप्रथम मन में हिंसा के विचार पैदा होते हैं । अतः हिंसा करने यानी मारने, पीटने, सताने, द्वेष करने आदि के विचारों का मन में उत्पन्न होना संरम्भ है । फिर उसके लिए सामग्री जुटाई जाती है। यानी हिंसा करने के लिए विविध सामग्री जुटाना - समारम्भ है । इसके पश्चात् 'आरंभ' का नम्बर आता है । 'आरम्भ' का क्रम हिंसा के प्रारम्भ से लेकर अन्तिम - प्राणों से रहित कर देने तक चलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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