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१८२ तमसो मा ज्योतिर्गमय
आत्मा क्रोधादि कषाय के वशीभूत होकर पहले तो अपनी हिंसा स्वयं ही कर डालती है, दूसरे प्राणियों की हिंसा तो बाद की बात है, वह हो भी सकती है, नहीं भी ।
यह भाव हिंसा ही है, जो पहले अपने आत्मा के गुणों की हत्या कर डालती है । रही बात दूसरों की हिंसा की, वह द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि पर निर्भर है । किन्तु अपने आप तो जल ही जाता है ।
आपने दियासलाई देखी है न ? वह रगड़ खाती है, तब जल उठती है । जलने के बाद ज्यों ही घास को जलाने जाती है, त्यों ही हवा का झौंका आया और बुझ गई तो वह घास को जला नहीं सकी । लेकिन खुद तो जल हो गई वह । इसी प्रकार भाव हिंसाकर्ता स्वयं तो अपनी आत्मा का अहित कर ही लेता है, दूसरों का अहित करे या न करे, दूसरों का सर्वनाश शायद न भी कर सके, यदि उनका पुण्य प्रबल हो, आयुष्यबल या प्राणबल प्रबल हो तो ।
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बात यह है कि मनुष्य के अन्तर्मन में जब आत्मौपम्यभाव का ह्रास होने लगता है, तो उसकी आत्मा में राग, द्व ेष, ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, अहंकार आदि विकार अपना आसन जमाने लगते हैं । वह बाहर से तो किसी पर तलवार, बन्दूक, चाकू या लाठी आदि हथियार चलाता नहीं दिखता | बाह्य शस्त्र अस्त्र तो उसने कभी से फेंक दिये । मांसाहार, शिकार या किस पर प्रहार आदि भी वह नहीं करता । शराब आदि नशीली चीजों का भ सेवन नहीं करता, किन्तु अंदर में उनसे भी बढ़कर तेज हथियार वह पकड़ लेता है । वह स्वयं समझता है कि मैं अहिंसक हो गया, मैं चींटी को भ नहीं मारता, किन्तु अन्दर में भयंकर हिंसा चलती रहती है ।
कोई गरीब हरिजन किसी व्यक्ति के यहाँ आ गया । हरिजन कं देखते ही उसके मन में भेदभाव के संस्कार घूमने लगे और मन ही मन घृणा करने लगा । मन में कहने लगा - "कहाँ से आ मरा, यह सुबह-सुबह यहाँ ? इसे भी यहीं आना था !" बस, उसके आने से पहले ही आप घर से नौ दो ग्यारह हो गए और अपने छोटे लड़के से कहला दिया उसे- बाबूज घर पर नहीं हैं, फिर कभी आना ।
इस घटना में उक्त बाबूजी ने बाहर से किसी की कोई हत्या की नह दिखाई देती, परन्तु हरिजन के प्रति घृणा करके भाव हिंसा द्वारा अपन आत्म-हिंसा तो कर ही डाली ।
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