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________________ परिग्रह के प्रति आसक्ति होती है, वह परिग्रह संज्ञा कहलाती है। वास्तव में मूर्छा एक ही है। इतना-सा होता है कि किसी विषय पर मूर्छा सघन होती है और किसी विषय पर वह विरल होती है। यह सच है कि एक ही व्यक्ति में सभी संज्ञाएं सघन नहीं होतीं और सभी संज्ञाएं विरल नहीं होती। कुछ संज्ञाएं सघन होती हैं और कुछ संज्ञाएं विरल होती हैं। किसी में कोई संज्ञा सघन होती है और किसी में कोई संज्ञा सघन नहीं होती। इसीलिए साधना करने वाले व्यक्ति को सबसे पहले यह निश्चय करना होता है कि उसमें कौन-सी संज्ञा प्रबल है, कौन-सी चित्तवृत्ति प्रखर है । उसे उसी पर प्रहार करना होता है। नारकीय जीवों में भयसंज्ञा, देवताओं में परिग्रहसंज्ञा, तिर्यञ्च में आहारसंज्ञा और मनुष्य में मैथुनसंज्ञा प्रबल होती है। यह विभाजन प्रधानता की दष्टि से किया गया है। वैसे तो प्रत्येक प्राणी में ये चारों संज्ञाएं होती हैं। किन्तु सबमें इनका प्रबल होना आवश्यक नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति सभी संज्ञाओं में से गुज़रता है। उसकी चित्तवृत्ति सभी संज्ञाओं से संक्रान्त होती है। एक ही पदार्थ के उपयोग भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। एक संन्यासी था। उसकी कंबल चोरी में चली गयी। भक्तों ने दौड़-धूप की। पुलिस में रिपोर्ट दी। चोर पकड़ा गया। उसे न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित किया गया। संन्यासी को भी बुलाया गया। न्यायाधीश ने चोर से पूछा- "तुमने संन्यासी का क्या चुराया ?" चोर ने कहा- संन्यासी के पास एक कंबल थी। वह मैंने चुरा ली।" संन्यासी से न्यायाधीश ने पूछा-'तुम्हारा क्या गया ?" संन्यासी बोला-"मेरा सब कुछ चला गया। मेरा बिछौना, सिरहाना, ओढ़ने का वस्त्र, सब कुछ चला गया।" चोर ने कहा-“संन्यासी झूठ बोल रहा है। मैंने केवल एक कंबल ही चुराया है।" न्यायाधीश असमंजस में पड़ गया। उसने चोर के आत्मविश्वास को देखते हुए सन्यासी से पूछा-"महाराज! सच-सच बतायें । केवल कंबल ही गया या सबकुछ चला गया ?" ___ संन्यासी ने कहा "सब कुछ चला गया। कंबल ही मेरा सब कुछ था। मैं कभी कंबल बिछा लेता हूं, कभी ओढ़ लेता हूं और कभी सिराहने दे देता हूं। यही मेरा बिछौना है, यही मेरा सिरहाना है । सब कुछ यही है।" एक ही कंबल सब कुछ बन गया। एक ही मूर्छा सब कुछ बन जाती है। एक ही मूर्छा कहीं आहार की आसक्ति बन जाती है, कहीं भय को आसक्ति बन जाती है और कहीं क्रोध की, कहीं झूठी मान्यताओं की और कहीं भीड़ के पीछे चलने की आसक्ति बन जाती है। इस प्रकार एक ही मूर्छा, एक ही संज्ञा विभिन्न रूपों में सामने आती है। ८४ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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